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महावीर परिचय और वाणी वात है। 'सामायिक' मे करने को कुछ नही रह जाता । 'सामायिक' का मतल्व हैअपने मे होना, 'समय' मे होना। करना नही है वहाँ, होना है सिफ । इसलिए जव कोई पूछता है कि 'सामायिक' पसे करें तो इससे और गरत सवार दूसरा नहा हो सस्ता वस्तुत हमारी सारी भाषा चितना करने पर खडी है । न करने का हम कोई सयाल ही नहीं है । सूक्ष्मतम तला पर, जब भी हम कुछ करते हैं, सदा और के साथ करते हैं। जब हम कता बनते हैं तब हम यह बनते है तो हम नहीं है । तब हम अपने ऊपर कोइ अभिनय लेत है। उदाहरण के लिए उस व्यक्ति को ले जा दूयानदार बनता है। दुकानदार होना जीवन में एक बड़े नाटक में उसका अभिनय है। अगर स्वभाव को जानना हो, जो मैं हूँ उसे ही जानना हो, तो मुझे सारी निम्या का, सभी चेहरो और अभिनया को छोडकर बाहर हो जाना पडेगा। थाडी देर के लिए बाहर सड़े हो जान का नाम सामायिक है। एक बार मुझे पहचान हो जाय कि मेरा कोई नाम नही चेहरा नहीं, शरीर नहा, कम नही, कोई अभिनय नहीं, मान होना है अस्तित्व मात्र मेरा स्वभाव है और जानना मान मेरी प्रकृति, ता.एफ मुक्ति, एक विस्फोट हागा । ऐसा विस्फोट व्यक्ति को जीवन के समस्त चक्कर के बाहर खडा कर देता है । हमारी सारी सभ्यता, सस्कृति और शिक्षा प्रत्येक यक्ति को उसका ठीक अभिनय दने की है।
चीन के एक जेन फकीर ने पहा है---तुम खोजते हो इसलिए सो रहे हो, जिसे तुम सोजत हो वह तुम्हें मिला हुआ है । एक क्षण तो रुको, अपनी दौड बद करो, ताकि तुम देख सको कि तुम्हें क्या मिला हुआ है ' बुद्ध को जिस दिन उपलब्धि हुई उस दिन सुबह उनसे लोगो ने पूछा--- आप को क्या मिला?' बुद्ध न उत्तर दिया-~-मिला कुछ भी नहीं। जो मिला ही हुआ था वही मिल गया ।
से मिला? बुद्ध ने पहा- 'यसे की बात मत पूछो। जव तक "से" की भाषा में सोचता था, तब तक नही मिला। फिर मैंने सव सोज छाट दी। उसी क्षण पता लगा कि जिस मैं सोजता था वह मुझे मिला हुआ था। जब कोई आत्मा को खोजने लगता है तब वह पागलपन म उलझ जाता है, क्यावि आत्मा को खोोगा कौन? खोजेगा पस' यह तो है ही हमारे पास । जब हम खोज रहे हैं तब भी, जब नहीं सोज रह हैं तब भी। अगर यह बात ठीर स खयाल मै मा जाय कि सामायिक है अप्रयास, असोज और अगर आप इसी क्षण हो सकते हैं तो आप वहा पहुंच जायगे जहा महावीर सदा स सडे हैं । अगर हम एक्ष्य को खोजते हुए भटक्ते रहें तो हम अनन्त-अनत जमा तक चूबते चले जायंगे, कारण काइ रक्ष्य नहीं है जो भविष्य असहमति प्रकट करते ह जो 'सामायिक को शिया मानते हु । 'सामाइय-सुत' में पहा गया है-'रेमि नते । सामान्य, सावन जोग पन्चरसामि ।' अर्थात, 'हे पूम! म सामायिक परता हूँ। अत पापवाली प्रवत्ति यो प्रतिज्ञापूवक छोड देता हूँ।'