________________
१७४
महावीर : परिचय और वाणी मेरा तो कोई पक्ष नही, कोई मत नही। महावीर से मुझे प्रेम है इसलिए मै महावीर की बात करता हूं, बुद्ध से मुझे प्रेम है, मैं बुद्ध की बात करता हूँ, कृष्ण से मुझे प्रेम है, मैं कृष्ण की बात करता हूँ। मैं किसी का अनुयायी नहीं हूँ। इस बात का आग्रह मन मे जरूर है कि इन सबको समझा जाना चाहिए। इनके पीछे चलने मे कोई कही पहुँच नहीं सकता, लेकिन इन्हें अगर कोई पूरी तरह से समझ ले तो स्वयं को समझने के लिए वडे गहरे आधार उपलब्ध हो जाते है।
दूसरी बात यह है कि मानव-धर्म की स्थापना नहीं की जा सकती। दुनिया में कभी एक धर्म स्थापित नहीं हो सकता। मनुष्य एके दूसरे से इतना भिन्न है कि कभी एक धर्म का होना असम्भव है । मेरी दृष्टि यह है कि मानव-धर्म एक हो, यह बात ही बेमानी है । धार्मिकता हो जीवन मे । धार्मिकता के लिए किसी सगठन की जरूरत नहीं। मैं इस चेष्टा मे नही हूँ कि एक मानव-धर्म स्थापित हो, मै इस चेप्टा मे हूँ कि धर्मो के नाम से सम्प्रदाय विदा हो जायें । बस, वे जगह खाली कर दे। मेरी दृष्टि यह है कि अगर सम्प्रदाय मिट जायें तो अधार्मिक आदमी बहुत कम रह जायेंगे। यदि सभी धर्मो के सार को इकट्ठा कर लिया जाय तो इससे कोई सम्प्रदाय खडित न होगा । मानव-धर्म स्थापित करने की चेप्टा मे एक और धर्म की स्थापना हो जायगी, एक और सम्प्रदाय बन जायगा। मेरी सलाह है कि सम्प्रदाय-मात्र का विरोध किया जाय और धार्मिकता की स्थापना की जाय--वर्म की नहीं, धार्मिकता की।
तीसरी वात-महावीर और वुद्ध-जैसे व्यक्तियो ने भगवान् को जो इनकार किया है, उस इनकार मे भगवत्ता का इनकार नही है। ईश्वर को इनकार किया है लेकिन, ईश्वरता को पूर्ण स्वीकृति दी है। अगर वे ईश्वर को मानते तो इनसान की स्वतत्रता पूरी नहीं हो पाती और अगर उसके रहते इनसान को स्वतत्र मानते तो यह स्वतत्रता वेमानी होती। यानी, अगर ईश्वर है और हम उसे स्रष्टा, नियम आदि नामो से पुकारते है और साथ ही यह भी कहते है कि आदमी पूर्ण स्वतत्र है तो, महावीर कहते है, इन दोनो वातो मे मेल नही है। ईश्वर की मोजूदगी ही इनसान की स्वतत्रता मे दाधा वनेगी। नियम उसकी परतत्रता के जनक होगे। इसलिए महावीर परमात्मा को इनकार करते है ताकि परतत्रता का कोई उपाय न रह जाय। इसका यह मतलब नहीं कि वे परमात्मा को नही मानते । इसका मतलब है कि वे परमात्मा के व्यक्तित्व को इनकार करते है और परमात्मा को सवमे व्याप्त मानते है, नियामक नही । परमात्मा के ऊपर वे किसी को नहीं विठाते । यदि हम यह मान ले कि परतत्रता परमात्मा की इच्छा है, जैसा कि साधारण आस्तिक मानता है, तो मनुष्य विलकुल परतत्र हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि हम अपनी इच्छा से इम जगत् मे नही है या कि ईश्वर की इच्छा से ही हम यहाँ हैं तो जगत् कठपुतलियो का खेल हो जाता है । जहाँ परम स्वतत्रता है वहां प्रत्येक चीज में अर्थ है । इसी परम स्वतं.