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महापौर परिचय और वाणी याना ब्रह्मचय वामना की ही अतिम समय से हुई निष्पत्ति है। यह वासना य विरद्ध पडी गई बात नहीं है। पासना का शिमा ठीर स समगा-पहचाना, यह धार धीर ब्रह्मचय या उपर घ हा जाता है। जिमन इसे पहचानन स इनकार कर दिया वह अपो ऊपर झूठा ब्रह्मचय थोप देता है। जव में साधु-सयासिया से मित्ता ता हैरान हो जाता हूँ। लोगा ये सामन ता व नात्मा परमात्मा की बातें परत ह ब्रह्मचय ये गुण गाते हैं, परन्तु एकान्त भ वे पूछते हैं कि काम-वासना से छुटकारा पस हा। दारिए मैं बहता हूँ पिजो जादमी सेक्स को ठीव से समय रेता है वह ब्रह्मचारी हुए विशा नहीं रह गकता-उरो ब्रह्मचय की पार जा ही होगा। अगर किसी का ब्रह्ममय की ओर लाना हा ता उस काम-वासना की पूरी समर दनी होगी। उरारे उस मम्माहन को तोडना पडेगा जो उस काम-यासा दे रही है। यह जानकर हैरानी होगी विनाधारणतया कामुक व्यक्ति उनका कामुम ही होता जितना वह साधु-सयामी हाता है रिमो ऊपर स ब्रह्मचय थोप लिया है। यह एक क्षण मी काम से छुन्यारा रहा पा सस्ता । उमन जिसे दवाया है वह भीतर स निरलने के लिए हरा उपाय सोज लेगा, वह उसरे सार चित्त को घेर रेगा, उसने पूर चित्त रग रशे म प्रविष्ट हा जायगा। ऐसा पस्ति सेक्स के वेद्र पर इतना दमन डालता है कि सेक्रा या प्रवृत्ति दूगरे द्राम प्रविष्ट हो जाती है-मर्यात, वह उसके मन और उसकी चेतना तपम चरी जाती है। प्राचय राग्ल है अगर थापा न जाय । वह पटिन है
१ रजनी को ब्रह्मचय विपयय' मा यताएं जनपम या मूलभूत मापताओं का सडन नहीं करती और उनमे पामबासना की प्रशस्ति है। उनका लण्य यिद माया मिश्य है। रजनीग पाम-पासा तर सपने को नहीं पहत, प्रत्युत्त उसे स्वाति दने और समझने की सलाह देते ह, उस सत्य को स्योपार करने की मांग करते हैं । और यह इसलिए करते ह कि ऐसी स्वीति से ही ब्रह्मचय परित हो सस्ता है, अन्यया नहीं। पाम-यासना पो जानना है तापि उसमे मुक्त हुआ जा सय । उरारे दमन से ब्रह्मचय पल्ति नहीं होता, उसको स्वोरति स उसरा अतिक्रमण हो सस्ता है। ये कहते हरि फाम-यासमा सत्य पो समझो, इससे नागो मत, "रो मत, भपभोत मत होमो-दो पहचानो, जागो । जागाणे, पहचानोगे, समझोगे तो काम-वासना क्षीण होगी और पूरा समस की स्थिति म स्पातरित हो जायगी। हां, ये यह नहीं मानने दिममा ब्रह्मचय का रक्षा लिए ऐसे स्थान में निवास परे जहाँ एशत हो, ना मम यस्तो पाताभार जो स्त्री आदि से रहित हो।
ज पियितमगाइन, रहिस पोमण प । यभरमा रगटटा, मारय छु राियए।
(उत्त० स० १६, ०१)