Book Title: Mahavir 1934 01 to 12 and 1935 01 to 04
Author(s): Tarachand Dosi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan

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Page 38
________________ विचारों के माफिक उसको मालूम हुमा कि बालकों में जो मन्दता है उनका उपाय औषध विचार नहीं परन्तु शिवा ही है। - उसने अपने विचार सन् १८६८ ई. में दूरीन में जो शिक्षा परिषद् दुई थी, उसमें दर्शाये थे। उसके भाषण से शिक्षा के क्षेत्र में नया प्रकाश पड़ा और शिक्षा सम्बन्धी संसार में नई जागृति उत्पन्न हुई। मूढ बालकों को कैसे समझाना तथा उनको नई पद्धति से कैसे शिक्षा देना भादि विषयों पर रोम की विद्यापीठ में भाषण देने के लिये डा० मोन्टीसोरी को वहां के अधिकारियों ने आमंत्रण भेजा। इसके बाद डा. मोन्टीसोरी निर्बल मन के मनुष्यों को सुधारने पाली संस्था की विद्याधिकारिणी हुई। इस वक्त डॉक्टर मोन्टीसोरी ने अपना वैद्यकीय धन्धा छोड़ दिया और इस नये कार्य क्षेत्र की ओर अग्रसर हुई। अभी तक दूसरी प्रवृत्तियों के साथ डॉक्टरी धन्धा थोड़े अधिक प्रमाण में किया करती थी और अपने घर पर खानगी तौर पर रोगियों को जो भयङ्कर व्याधि से ग्रसित होते उन्हें भी रक्खा करती थी। उनके पास निर्भयता से जाती थी और माधी पिछली रात को उमङ्ग से उठ कर उनको देखा भाला करती थी तथा कार्य भी करती रहती थी। अपने काम में इतनी अधिक होशियारी रखती थी कि इतनी होशियारी से कार्य करते हुए उसका धन्धा बन्द हो जाने की सम्भावना थी। वह उसका कुछ ख्याल न कर मरणावस्था में पहुंचे हुए बालक को कमी नहलाने और स्वच्छ विस्तर में सुलाने की जरूरत मालूम होती तो वैसा करने का खुद फर्ज अदा करती तथा वह दूसरे डाक्टरों के माफिक दवा लिख कर नहीं चली जाती थी। रोम के गरीब लत्ता में रहने वाली माताओं को सिर्फ दवा लिख कर देने से उसका असर कुछ नहीं होगा यह बात वह अक्षर २ जानती थी। अतएव वह बालक के लिये भावश्यक्ता की नमाम चीजें अपने खुद मकान से मंगा कर देसी थी। यदि किसी रोगी को कमाने की जरूरत हो और उसके पास कोई धन्धा न होता तो वह अपने खुद के खर्चे से रोगी को काम पर लगाती थी। यदि कभी

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