Book Title: Mahavir 1934 01 to 12 and 1935 01 to 04
Author(s): Tarachand Dosi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
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नहीं है। इस पद्धति की पूर्णता इसके सब अंगों की पूर्णता में है इसमें ही इसके साधनों की पूरी खूबी है। इससे मोन्टोसोरी पद्धति के साधन क्रमिक है ज्यों एक स्क्र बिना सारा सांचा ढीला पड़ जाता है। त्यों ही एक या दो क्रम से, एक या दो पगथियों को छोड़ देने से सारे काम की गड़बड़ हो जाती है इसका अर्थ यही हो सकता है कि या तो सारी मोन्टीसोरी पद्धति को स्वीकार किया जायें वरना सारी पद्धति का त्याग किया जायें। एक या दो साधनों को काम में लाने से कोई भी पाठशाला मोन्टीसोरी पाठशाला नहीं हो सकती तथा उससे कुछ लाभ भी नहीं हो सकता।
हमने देखा कि मोन्टीसोरी पद्धति के साधन बच्चों की वृत्ति और जरूरतों के अनुसार बनाये गये हैं । यह वृत्ति और जरूरत डॉ. मोन्टीसोरी को कैसे मालूम हुई उसको हमें देखना चाहिये । अपने इधर उधर की दुनियां का ज्ञान प्राप्त करने की बच्चों को पहिले में पहिली जरूरत रहती है। वह स्वयं संसार में जीना चाहता है इससे अमुक प्रकार का ज्ञान उसको अति आवश्यक और अनिवार्य लगता है । ये ज्ञान संसार में चारों तरफ भरे हुए रूप, रंग भिन्न २ प्रकार के कद, तरह २ की मुलायम सतह, सुवास अथवा कुवास तथा स्वाद और बेस्वाद है । इस ज्ञान के प्राप्त करने के लिये बच्चे को इन्द्रिय विकाश की शिक्षा पहिले दर्जे की मिल जानी चाहिये ! बचा इस तरह की शिता द्वारा आगे बढ़ सकता है इसलिये ही इन्द्रिय विकाश के साधन मोन्टीसोरी पद्धति में अति महत्व पूर्ण हैं ।
यह साधन दना काम देता है अथवा उसके द्वारा बच्चों में प्रावश्यक विकाश की सिद्धि होती है । इतना ही नहीं परन्तु ये ही साधन बचों में और पाठशाला में व्यवस्था उत्पन्न करते हैं । जिस वस्तु से बच्चे उत्साहित होते हैं उस वस्तु में बच्चा तल्लीन हो जाता है और उस तल्लीनता में ही व्यवस्था है। विना साधन की अथवा अपूर्ण साधनोंवाली शाला में मोन्टीसोरी पद्धति अनुसार जिस तरह की व्यवस्था और सुनियमन की जरूरत है उसकी भाशा नहीं रखी जा सकती है । साधनों की जितनी परिपूर्णता होगी उतनी ही अधिक सुनियमन के लिये तैयारी हो जायगी । मुनियमन यह बाहिर की वस्तु नहीं है वया वह हो भी नहीं सकती है। जो वस्तु बच्चे को एकाग्रह बनाती है उती