Book Title: Mahavir 1934 01 to 12 and 1935 01 to 04
Author(s): Tarachand Dosi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
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(८७) दुमा था उसका ध्यान क्रॉस की तरफ नहीं था। उसके मुंह पर श्रम और उद्योग के चिन्ह थे । बार २ वह भी उस कुर्सी में बैठे हुए बच्चे के पास से जाता था । एक दफा उसके गले से वह कोसं गिर गया। कुर्सी में बैठे हुए बच्चे ने उसको उठा लिया और उस प्रवृत्ति में लीन बच्चे से पूछा " क्या पड़ा है उसकी तुझे खबर है ?" उद्योगी बच्चे ने सिर्फ दृष्टि से जवाब दिया "मैं काम में लीन हूं मेरे काम में दखल होती है। मुझे क्रोस की परवाह नहीं है । " उस ने जोर से कहा मुझे जरूरत नहीं है " उस बालक ने कहा " निःसंदेह तुम्हें जरूरत नहीं है तो मैं उसको रक्खूगा और काम में लाऊंगा" इसका उत्तर उसने यह ही दिया कि खुशी से पहिनो परन्तु गड़बड़ मत करो।
. उस आराम कुर्सी पर बैठे हुए बच्चे ने क्रोस को गले में पहिना, सुख से पाराम कुर्सी में सो गया। आनन्द प्रदर्शित करते हुए अपने दोनों हाथों को कुर्सी पर रक्खे । यह क्रोस ही था कि जिसकी वजह से वह इतना आनन्द और संतोष अनुभव कर रहा था परन्तु जिसको क्रिया में से प्रानन्द और संतोष मिल रहा था उसको क्रोस की कुछ परवाह नहीं थी परन्तु दसरे बालक को तो वही वस्तु महत्व की मालूम हुई उसको दूसरी आनन्द देनेवाली वस्तु ही नहीं थी।
एक दफा मैं और एक स्त्रो पाठशाला को देखने गये उसके पास तख्मे की पेटी थी। उसने पाठशाला में उसको खोली और कहा कि इसमें से हर एक बालक के एक २ तख्मा लगाओ । मैंने कहा नहीं । शिक्षक ने पेटी को हाथ में ली । इस वक्त एक छोटा बच्चा टेबल पर बैठा २ काम करता था उसने भोह चढा कर कहा " बच्चों के लिए नहीं, बच्चों के लिये नहीं।" इस बालक को किसी ने कुछ नहीं कहा था तो भी वह जानता था कि वह वर्ग में सब से होशियार है अतएव उसने इनाम से अपमानित होने के लिये इनकार किया यह कितनी बड़ी अजाइबी भरी अत है। यह एक बड़ा चमत्कार था। अपना रुतबा दूसरी तरह से कैसे सम्हालना इस वात की उसको जरा भी खबर नहीं थी प्रतएव उसने 'बालकों को नहीं ' ऐसा कह कर अपनी जाति की श्रेष्टता का शरण लिया।
हमारा ऐसा अनुभव है कि अकसर बच्चे हमारा कुछ भी सुने बिना और हमारी परवाह किये बिना बहुत से बच्चों को खलल पहुंचाते हैं। ऐसे