Book Title: Mahavir 1934 01 to 12 and 1935 01 to 04
Author(s): Tarachand Dosi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan

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Page 12
________________ ܝ ܘ ܢ जानने का अधिकार नहीं है उसके गले चाहे जैसी बला लगा दी जाती है और उसको उससे चुपचाप स्वीकार करना पड़ता है । 1 इसका परिणाम बड़ा भयंकर आता है। यदि कन्या सुशीला होती है तो लड़का बुदु होता है । एक तरफ सौन्दर्य्य होता है तो दूसरी तरफ कुरूप होता है। एक तरफ ज्ञान शिक्षा होती है तो दूसरी तरफ जड़ता होती है। इस तरह स्वभाव आदि में भी विरुद्धता होती है। क्या ऐसे बेजोड़ लग्नों से गृहस्थाश्रम में सुख शान्ति हो सकती है ? अक्सर लोगों को अपना संसार बहुत मुमीबत में और बुरी हालत में निबाहना पड़ता है । आचार्य मुनिचन्द्र और हरिभद्र ने धर्म बिन्दु की वृत्ति में और आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में आठ प्रकार के विवाह बताये हैं जिनमें ब्राह्म, प्राजापत्य, श्रार्ष और देव इन चार विवाहों को धर्ममय बताते हैं । इन चार विवाहों में भिन्न २ तौर से कन्या दान दिया जाता है और गान्धर्व, आसुर, राक्षस और पैशाच ये चार विवाह धर्ममय बताते हैं । माता पिता की सम्मति बिना परस्पर अनुराग से मिलन करना गन्धर्व विवाह है, शर्त से कन्या का विवाह करना यह असुर - विवाह है, बलात्कार से कन्या का ग्रहण करना यह राक्षस विवाह हैं और सोती हुई या प्रमत्त, असावधान कन्या को उठाकर ले जाने को पैशाच विवाह कहते हैं। सिर्फ एक गान्धर्व को छोड़कर बाकी के तीन ( श्रासुर, राक्षस और पैशाच ) ये स्पष्ट रूप से अधर्ममय हैं परन्तु गान्धर्व विवाह अधर्ममय नहीं हो सकता क्योंकि वहां पर पारस्परिक इच्छा है। कदापि आसुर, राक्षस और पैशाच विशह में भी जो पारस्परिक इच्छा हो तो वह अधर्ममय विवाह धर्ममय बन जाता है । मुनि चन्द्राचार्य और हेमचन्द्राचार्य का कथन है कि विवाह का फल शुद्ध स्त्री का लाभ ही है, जब कि कुमाय्यों का योग ही सरासर नरक है । फिर इस विषय में विवाह का फल और कहते हैं- विवाह का फल यह है कि वधू की रक्षा करने वाले पति को अच्छी सन्तति का लाभ, चित्त की निराबाध शान्ति, गृहकार्य की सुव्यवस्था, सत्कुलाचरण, शुद्धि, देव, अतिथि बान्धवों का योग्य सत्कार लाभ फिर जिन मंडन गाण कहते हैं कि गृह की चिन्ता के भार को दूर करना, अक्लमंदी की सलाह देना, साधु अतिथियों का सम्मान करना ये गुण जिस स्त्री में होते हैं वह सद्गृहिणी कहलाती है और वह निःसन्देह घर की कल्प लता है फिर उसी के

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