Book Title: Mahabandho Part 4 Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 21
________________ महाबन्ध मिथ्यादृष्टि नारकी के जितनी सम्भव है, उतनी अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के सम्भव नहीं है, इसलिए ओघ से इसका जघन्य अनुभागबन्ध परावर्तमान मध्यम परिणामों से न कहकर सर्वविशुद्ध सम्यक्त्व के अभिमुख हुए नारकी के कहा है । यह सामान्य से विचार है कि आदेश से जहाँ जो विशेषता सम्भव हो, उसे जानकर स्वामित्व का निर्णय करना चाहिए । आगे काल आदि प्ररूपणाओं में भी यह स्वामित्व प्ररूपणा मूल आधार है, इसलिए यह काल आदि प्ररूपणाओं की योनि कहा जाता है । काल आदि का निर्देश ओघ और आदेश से मूल में किया ही है। कारण का निर्देश वहाँ ही हमने विशेषार्थ देकर कर दिया है, इसलिए पुनः उस सबका यहाँ परिचय कराना उपयुक्त न समझ कर यहाँ चौबीस अनुयोगद्वारों के आगे के प्रकरण को स्पर्श करना उचित मानते हैं । २० भुजगारबन्ध-भुजगार पद देशामर्षक है। इससे भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यबन्ध का ग्रहण होता है। पिछले समय में जितना अनुभाग का बन्ध हुआ है, उससे वर्तमान समय में अधिक अनुभाग का बन्ध होना, इसे भुजगार (भूयस्कार) - बन्ध कहते हैं । पिछले समय में बाँधे गये अनुभाग से वर्तमान समय में कम अनुभाग का बन्ध होना, इसे अल्पतरबन्ध कहते हैं। पिछले समय में जितने अनुभाग का बन्ध हुआ है, वर्तमान समय में उतने ही अनुभाग का बन्ध होना, यह अवस्थित बन्ध कहलाता है । तथा जो पहले नहीं बँधकर वर्तमान समय में बँधता है, उसकी अवक्तव्य संज्ञा है। इस प्रकार इन चार विशेषताओं के साथ इस अनुयोगद्वार में अनुभागबन्ध का विचार किया गया इसके अवान्तर अधिकार तेरह हैं- समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । पदनिक्षेप - भुजगार विशेष का नाम पदनिक्षेप है । इस अनुयोगद्वार में अनुभाग बन्ध सम्बन्धी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि, उत्कृष्ट अवस्थान, जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान की समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन उपअधिकारों द्वारा विचार किया गया है। वृद्धि - वृद्धि बन्ध में छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्य इन पदों की समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन तेरह उपअधिकारों द्वारा ओघ और आदेश से व्याख्यान किया गया है। अध्यवसानसमुदाहार-आगे अध्यवसानसमुदाहार प्रकरण प्रारम्भ होता है। इसके बारह भेद हैं-अविभाग प्रतिच्छेद प्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, ओजयुग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्व | खुलासा जानने के लिए धवलाखण्ड ४, पुस्तक १२ में विषय-परिचय के २ से ४ तक पृष्ठ देखिए । जीवसमुदाहार - आगे जीवसमुदाहार प्रकरण आता है। इसके आठ अनुयोगद्वार हैं- एकस्थान जीवप्रमाणनुगम, निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा और अल्पबहुत्व। इसके स्पष्टीकरण के लिए धवला खण्ड ४, पुस्तक १२ में विषय- परिचय के पृष्ठ ४ से ५ तक देखिए । इस प्रकार मूल प्रकृति अनुभाग बन्ध का विचार करके उत्तर प्रकृति अनुभाग बन्ध का विचार प्रारम्भ होता है । अनुयोगद्वार सब वही है, जिनका निर्देश मूल प्रकृति अनुयोगद्वार में किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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