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(१) इसमें तो 'खा गया खो गया' का सौदा है । जीवन के अन्त में चाहे जितने सुख भोगने वाला भी, सुख न भोगने वाले की तरह ही स्वयं को अकेले ही रवाना होते देखता है । धन-माल-परिवार और यह सुख सब कुछ छूटता हुआ और स्वयं को इन सबसे नष्ट होते हुए देखता है ! तब उसके दुःख का पार नहीं होता | तो फिर सुख भोगा, वह किस काम का? जिसका अन्त अच्छा, वह अच्छा और जिसका अन्त बुरा, वह बुरा ।' ऐसा कहा जाता है । इस हिसाब से इस दारुणदुःखभरे बुरे अन्त के हिसाब से जीवन भर भोगा हुआ सारा सुख भी बुरा ही माना जाएगा । देव-जीवन के अन्तिम ६ मास की स्थिति ऐसी दुःखमय होती है और उसे ऐसा ही लगता है।
(२) यहाँ भी काम-पुरुषार्थ के पीछे पड़े हुए जीव को,
(i) कर्म के विचित्र तूफानों के कारण उसे कुछ न कुछ कम ज्यादा लगता ही रहता है । एक तरफ सुख ठीक तो, (ii) दूसरी ओर सुख में कमी दिखती है | (iii) उसका वह सुखसाधन क्षण भर बाद उसे दुःखरुप लगता है । इन सब कारणो से कदम-कदम पर उद्धेग तो है ही । (iv) दूसरे को अच्छा या अपने से ज्यादा अच्छा मिला हो, तो यह देखा नहीं जा सकता, हृदय में चुभता है । इस प्रकार (v) संयोग के सुख ऐसे हैं कि इन संयोगों की अपेक्षा रखनी पड़ती है, गलामी करनी पड़ती है । यह भी अन्त में दुःखदायी सिध्द होता है । इस तरह देखा जाय तो वर्तमान जीवन में भी पूरा सुख तो है ही नहीं, उद्धेग, गुलामी, आतुरता आदि से भरा हुआ मिश्रित सुख है । ___ (३) इसमें भी यदि रोग आ जाय, अचानक पैसे, पत्नी या पुत्र चले जायें, तो माने हुए दूसरे सब सुख-साधन मौजूद होने पर भी रोना पड़ता है । वहाँ काम-पुरुषार्थ की हिमायत बचा नहीं सकती, स्वस्थ नहीं रख सकती ।।
(४) काम पुरुषार्थ में डूबे हुओं की परलोक में महा दुर्दशा है । क्योकि यहाँ केवल विषय-सुखो की मन में चढ़ी हुई आंधी एक तरफ भंयकर पापोपार्जन और दूसरी तरफ दुःखद कुसंस्कारों को दृढ़ बनाती है । इससे परलोक में एक तरफ दुःख का, दुर्दशा का पार नहीं और दुसरी तरफ उन दृढ कुसंस्कारों के कारण जीवन पाप भरा मिलता है । यहाँ किसी पुण्य का उपार्जन नहीं किया, इसीलिये वहाँ मनचाहा नहीं मिलता ; आहार-विषयों के कुसंस्कारों के कारण उसकी भूख ज्यादा होती है ! कितने दुःख का विषय ? . .
इस प्रकार काम पुरुषार्थ के पीछे पड़े हुए को यहाँ और परलोक में विडंबना है । इसीलिये धर्म पुरुषार्थ ही एक स्वीकारने योग्य है, जो यहाँ और बाद में स्वस्थ
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