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'पारिणामिकी बुद्धि' - अर्थात् जिससे
वस्तु पर से शीघ्र ही परिणाम तक दृष्टि पहुँच जाय सो। शास्त्र में बात आती
है कि,
लड़के का दृष्टान्त :
एक लड़का अपनी माँ के साथ कहीं खाना खाने गया। खाने में उसे रूचि नहीं थी, परन्तु माँ के आग्रह के कारण जाना पड़ा । माता ने आग्रह क्यों किया ? कहो न कि मुफ्त में बढिया मिलता हो तो क्यों छोड़ना ? जीव की यह अनादि की कुमति है । पुख्त बने हुए माँ बाप भी उसके अपवाद कहाँ है ? बस ! हराम का लेने- खाने की वृत्ति में भला अच्छे विचार अच्छी भावना कहाँ से आए ?
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क्या आप अच्छे विचार चाहते है ? तो मुफ्त का और हराम का लेने खाने की आदत छोड़ देना । इस के लिए पहले नंबर में देव, गुरू और मातापिता के प्रति पहले कृतज्ञता पालनी होगी, कृतज्ञता पालने के लिए तन-मन-धन का बलिदान पहले देना होगा, देवाधिदेव के प्रभाव से यह शुभ मानव गति और दूसरा भी कितना ही पुण्य मिला है, अब देवाधिदेव की भक्ति में कुछ नहीं ले जाना है, तो उनका दिया हुआ माल हराम का भोगने की बात हुई । इससे बुद्धि हरामी बनती है । प्रभु भक्ति में रोज अपनी वस्तु ले जाकर भक्ति करनी चाहिए, उसी तरह गुरू की सेवा में और माँ-बाप की भक्ति में अपने द्रव्य का व्यय करना चाहिए, नहीं तो हड्डियाँ हरामी बनेंगी और बुद्धि भी हरामी । फिर उस से जीवन में कोई प्रगति नहीं होगी।
माता के आग्रह से लड़का भोजन करने गया और माता की शर्म के कारण डट कर खाया। परन्तु घर लौटने पर उसे कै हुई और उसमें सब कफ-पित्त से भरा हुआ बाहर निकला। यह देख कर लड़के ने सोचा
"अरे ! यह शरीर कैसा है ? यदि इसमें ऐसा ही सब भरा है तो खाये हुए खुराक का नतीजा कैसा होगा ? इसी तरह इस संसार में भाँति भाँति के राग द्वेष और मोहमाया से भरी प्रवृत्ति करने का कैसा फल होगा ?"
बस यह विचार आने से उसे वैराग्य जगा । और संसार का त्याग कर उसने चारित्र-जीवन अंगीकार किया । यह किस बुद्धि के आधार पर ? पारिणामिकी बुद्धि के |
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