Book Title: Kuvalayamala Part 1
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 241
________________ भाई ! अब यह कल्पान्त (विलाप) छोडो । हो गया सो हो गया । अब तेरे रोने या जल मरने से मरे हुए कोई जिंदा होने वाले हैं ? सो मरने का विचार ही मत करना।' | लोक-सहानुभूति के उपाय : देखने की बात है कि भयानक हत्या के कारण जो लोग मारने तथा धिक्कारने को तैयार होते हैं वे ही लोग इतनी सारी सहानुभूति प्रकट करते हैं । इसकी वज़ह, न भूलो कि चंडसोम का (१) सच्चे दिल का इकरार, (२) जलते हृदय की पश्चात्ताप, और (३) इतनी भारी सजा भोगने का निश्चय है | यह पुनः इसलिए याद करते हैं कि लोगों की सहानुभूति मिलने के अनेक फायदे हैं। लोक सहानुभूति से कौन-कौन से लाभ ? (१) लोग हमारी निंदा नहीं करते, अतः उससे हमारे चित्त में उस निंदा के कारण होनेवाला संक्लेश, कषाय, दुर्भाव रुक जाता है । इससे कर्मों तथा कुसंस्कारों का कूडाकर्कट नहीं बढता । (२) ऐसे चित्त-संक्लेश मिट जाने के कारण लोगों का भी बचाव हो । (३) लोग अनुकुल होने के कारण हमें वे मौके पर बाह्य-अभ्यंतर रुप में सहायक बनें । बाह्य कार्य में विघ्न न बन कर वे कम से कम हिम्मत-आश्वासन-मीठी निगाह रखकर मदद-स्वरुप बनें, और आभ्यंतर शुभ भाव प्रेरक समर्थक बनें । हम ऐसे सात्त्विक नहीं हैं, और इतने आत्मनिष्ठ नहीं हैं कि बाह्य की परवाह करना छोड़ सकें, बाहर का असर ग्रहण न करें, और हमारे अपने शुभ भाव एवं साधना में स्थिर रहें । हम इतने सात्त्विक नहीं । बाह्य का प्रभाव पड़ता ही है । अतः कुप्रभाव से बचने का लाभ तभी मिलता है जब लोग हमारे खिलाफ न हों। __ अतः लोगों की उपेक्षा करना उचित नहीं, 'कि मुझे लोगों की क्या परवाह ?' लोगों को मेरे कारण चित्त-संक्लेश न हो इतनी दया के लिए भी लोगों की भावना न बिगड़े यह ध्यान रखना चाहिए । इसीलिए तो साधुओं को भी शास्त्र कहते हैं कि, 'मैं तो त्यागी हूँ, मुझे लोक की क्या परवाह ?'ऐसा मानकर लोक की उपेक्षा न करना। चिता में गिरने से रोकते हैं : अपने प्रचंड पश्चात्ताप और सजा भोगने की चंडसोम की तो अपने आप तैयारी ही है यह देखकर लोग अनुकूल हो जाते हैं । अतः उसे नहीं जल मरने को समझाते २३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258