Book Title: Kuvalayamala Part 1
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 254
________________ 'खुद प्रभु ही क्यों घोर तप की आराधना करते ? और धन्ना मेघकुमार जैनों को क्यों ऐसा तप करने देते ?' कह देते न कि 'रहने दो, रहने दो धन्ना ! ऐसे शरीर सुख देने से कुछ नहीं होगा ।' ऐसा न कह कर तप क्यों करने दिया ? और फिर बाद में प्रभु ने उसके तप की प्रशंसा क्यों की ? प्र. तप तो सद्गति और उत्तम पुण्य के लिए होता है न ? उ. ( 9 ) भगवान को और दूसरा भव करना कहाँ शेष था कि उन्हें सद्गति और पुण्य की आकांक्षा हो ? यह बात नहीं, तब भगवान् ने तप किस लिए किया ? और जो किया तो क्या तप बेकार गया ? नहीं, इसलिए कहो कि तप से खूब सारे पाप नष्ट हुए । (२) दूसरी बात यह है कि भले ही धन्ना - मेघकुमार को उसी भव में मोक्ष नहीं था, किन्तु यदि उनके तप न होता तो तप से क्षय होनेवाले पूर्व जन्म के कितने ही पापानुबन्ध तप के बिना कैसे नष्ट होते ? साथ ही तप के बिना रागादि उत्कट दोष कैसे नष्ट होते ? और वे यदि ज्यों के त्यों बने रहें तो जीव को ऐसी चित्त की और बुद्धि की निर्मलता कहाँ से मिले ? तप नहीं करना है, यही बताता है कि शरीर पर एवं रसना के विषयों पर गाढ़ा राग है । इस के होते हुए दूसरा धर्म ऐसी ऊँची सद्गति कैसे दिला सकता है ? निर्मल पुण्य कैसे उत्पन्न हो ? अतः कहना रहा कि तप से ऐसे भयानक पाप नष्ट हो जाते हैं कि जिसके परिणाम में आगे चलकर सद्गति, निर्मल पुण्य तथा सद्गति मिल सकती है । बस, यह बताता है कि (१) इस जन्म के पापों की गुरु समक्ष शुद्धि करते रहना और (२) गत भव के पाप नष्ट हों इस हेतु, तप करते रहना । अब प्रश्न इतना ही रहता है कि ' तप का अर्थ क्या ? इस में क्या क्या करना होता है ? भगवान् ने कैसा तप साधा ? : स्वाध्याय-ध्यान-कायोत्सर्ग ये आभ्यन्तर तप कहलाते हैं । परन्तु ये तप देह को सुकुमार बनाये रखकर किये जायँ तो कितना सफल हो ? महावीर भगवान् में तत्त्वचिंतन ध्यान और कायोत्सर्ग की शक्ति कितनी ! तन्मयता कैसी ? गजब की । फिर भी उन्होंने काया को क्या सुकुमार ही बनाये रखा, या अच्छी तरह कसा ? काया को कसा सो काहे से किस वस्तु से ? साढ़े बारह वर्षों में लगभग साढ़े ग्यारह वर्ष जितने उपवासों द्वारा ! इनमें से दो बार तो लगातार छ: महीनों के उपवास आये | सतत चार मास के उपवास नौ बार आये। ढाई मासी, डेढ मासी भी आयीं, परन्तु इन सबके पारने में एकासना ! तिस पर छट्ट (बेले) के पारने - २४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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