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(२) इसके साथ सम्यक्त्व धारण करो :क्योंकि सम्यक् दर्शन न हो और दृष्टि मूलतः मैली और मूढ हो तो क्या तप और क्या कोई और साधना-कुछ काम नहीं लगती ।
(३) ऐसे अपने दुश्चरित की खूब निन्दा और घृणा करो । :___ जिससे उस दुश्चरित का आकर्षण मूल से उखड़ जाय ताकि सद्व्यवहार का सशक्त आकर्षण उत्पन्न हो और संवर की वृद्धि हो ।
(४) हिंसादि पाप वोसिरा दो (छोड़ दो) :इसके अलावा हिंसा, झूठ-चोरी-विषयासक्ति और परिग्रह इन पापों को संपूर्णतः छोड़ दो जिससे नये कर्मों का बँधना रुक जाय ।
(५) कषायों को छोड़ो :__ ऐसे ही अब क्रोध कभी न करना, अभिमान नहीं, माया नहीं, लोभ नहीं, हास्य नहीं, हर्ष-विषाद नहीं, भय नहीं, कोई भी कषाय न करना । (६) संयम में उद्यमशील-प्रकाशमान बनो :
यह सब छोड़ कर विनीत बनकर एक मात्र संयम के सत्रह प्रकारों में ही उद्यमवान् बनो ।
| लाखो जन्मों के पापों का सफाया :- |
इस तरह (१) जो व्यक्ति तप, संयम और दुष्कृत्य-गर्दा करे (२) हिंसादि पापों और क्रोधादि कंषायों को छोड दे, तथा (३) विनय के साथ संयम ही लीन बने उसके केवल इसी एक जन्म के नहीं, बल्कि लाखों भवों के उपर्जित पाप नष्ट हो जाते हैं।
(१) तप-संयमादि धर्म से नये पाप रुकते हैं :
अनेक जन्मों के पाप नष्ट कैसे होते हैं ?:
आचार्य महाराज ने राह दिखा दी; ऐसी राह जो जन्म-जन्म के पापों का विध्वंस . कर दे | क्या भरोसा कि वह जन्म-जन्म के पापों का विध्वंस कर ही दे ? भरोसा
यह कि यदि इस तरह से पापनाश न होता हो तो आत्मा का मोक्ष कभी हो ही नहीं । कारण यह कि असंख्य जन्मों के कर्म जीव के बचत खाते में पड़े होते हैं। यदि वे सीधे ज्यों के त्यों भोगने से ही नष्ट होते हों तो उनका कहाँ से पार आए। भोगने में कई कई जन्म लग जाएँ. उपरांत उनमें भी फिर नया नया कर्म समूह तो आत्मा में उपस्थित हो ही जाता है । तब केवल भोग कर ही खत्म करते करते
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