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ध्यान में रखना होगा किः___ असत्पुरूषार्थ किसी कर्म के उदय का कार्य नहीं है। यह तो जिस प्रकार आत्मा में कर्म है, ज्ञान-दर्शन का उपयोग है, उस तरह मन-वचन काया का योग भी हैं। योग का प्रेरक है वीर्य-स्फुरण। सत्स्फुरण करना या असत्स्फुरण यह जीव का अपना अधिकार (अख्तियार) है । विवेकी जीव सत् वीर्य स्फुरित करके सत् योग जगाएगा और अविवेकी जीव, असत् वीर्य की स्फुरणा करके असत् योग में पड़ेगा। तात्पर्य... जीव पुरुषार्थ के विषय में स्वतंत्र है। - इसीलिए जीवों में विचित्रता दिखाई देती है कि कतिपय जीव छोटे कषाय-प्रसंग में भी बाहर बडी धमा-धम मचाते है, जब कि कुछ ऐसे भी हैं जो बड़े कषायप्रसंग में भी बाहर थोडी धमाधम करते हैं। अन्तर में कितनी मात्रा का उबाल आया इसका खुद को तो पता होता है न? अब इस पर कैसा विचार कैसी बाहर की मुखमुद्रा और कैसे वाणी-विलास आदि करने हैं सो अपने हाथ की बात है। ये जैसे किये जाएँगे वैसा योग खडा होगा ।
कर्म के उदय में जीव ने कर्म को या अपनी आत्म-दशा को इस असत् योग की सहायता दी इससे यह जीव मरने पड़ा । उस की आत्मदशा पहले बिगड़ी हुई थी । उसे यहाँ और बिगाडा। दुर से स्त्री को देखने पर अन्तर में राग-विकार उठा सो कर्मोदय है, परन्तु तत्पश्चात यदि उसके सामने एक टक देखने का पुरूषार्थ किया तो ऐसे असत् योग का मेल करने से आत्मदशा निकष्ट बनेगी ही। अनीति
अन्याय से धन पाने की इच्छा हुई तो यह अशुभ कर्म का उदय हुआ परन्तु अब उसे कैसे पाना उसकी योजना का विचार करने लगे, आगे प्रवृत्ति की, तो उसे असत् योग की सहायता दी तो मर गये। आत्म-दशा बिगड़ी। मद या ईर्ष्या या क्रोध का भाव कर्म के उदय से जाग्रत हुआ फिर भी यदि उस पर मलिन विचार करने लगे तो वह उसे असत् मनोयोग की मदद देना हो गया । उससे आत्मदशा अधिक बिगड़ी। अतः इससे बचने के लिए यही करना चाहिए कि हम ऐसे दुष्ट भावों को जाग्रत करनेवाले अशुभ कर्मोदय के सामने सत् योग खड़ा कर दे । यह सत् योग अर्थात् अच्छी शास्त्रीय प्रकार की विचारणा, क्षमा-वैराग्यादि के वचन और वैसी शुभ प्रवृत्ति। पूछिये :प्र० यह सब कुछ सही, पर निमित्त ही बुरा मिले तो कैसे बचा जाय ?
उ० यह क्या आप अकेले कहते है ? बहुत से लोग ऐसा कहते है कि 'हम तो बहुतरा अच्छा बने रहना चाहते हैं, किन्तु हमें निमित्त बुरे मिलते हैं तो क्या किया जाय? लेकिन सोचिये कि चंडकौशिक सर्प को प्रभु महावीर का कितना
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