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पड़ता हो तो ज्ञानी ने उसका उपदेश क्यों दिया ? बिना उपदेश के क्या पुरुषार्थ उनके देखे मुताबिक न हो जाय ? नहीं, पुरुषार्थ तो चाह कर करने से ही होता है ।
ज्ञानी ने स्वयं देखने के अतिरिक्त पुरुषार्थ करने का उपदेश भी दिया है, वह सूचित करता है कि यह पुरुषार्थ वैसे ही अपने आप होनेवाली वस्तु नहीं है । परन्तु चाहकर करने ही वस्तु है । अतः 'ज्ञानी देखे अनुसार, भवितव्यता जैसी होगी वैसा हो ही जाएगा' ऐसा ऐकान्तिक अभिनिवेश -दुराग्रह रखने की जरुरत नहीं है। वह अस्थान- अभिनिवेश है । अस्थान- अभिनिवेश रखना कुपुरुष का मार्ग है। सज्जन को तो ऐसे अभिनिवेशों का त्याग कर ज्ञानियों के अनुभव और उपदेश का अनुसरण करना चाहिए ।
(२) ईर्ष्या
कुपुरुषता (दुर्जनता) का दूसरा लक्षण ईर्ष्या है ।
ईर्ष्या मनुष्य को अधम मनुष्य बनाती है । 'परंतु वह दूसरी ओर तप, जप, दया दान आदि करता हो तो?' 'तो क्या ?' ये गुण भले ही उत्तमता के घर के हों, किन्तु ईर्ष्या तो अधमता लाती ही । और वह अधमता कोई खाली (निष्फल) नहीं जाती। वह अपना काम करती ही है । वह यहाँ भी दुःख देती है और परलोक में और भी भारी अनर्थ करती है। देखो
यहाँ ईर्ष्याजन्य नुकसान कितने ? ईर्ष्या के कारण यहाँ
(i) खान-पानादि की अनुकूलता होते हुए भी जलन हुआ करती है, संताप रहा करता है और दूसरा चाहे कितना ही सुख हो पर यदि संताप रहे तो वही दुःख है ।
(ii) वह खाने-पीने से बने हुए खून को भी जलाती है, तपाती है और तपा हुआ खून आगे चलकर रोग पैदा करता है सो अलग।
(iii) ईर्ष्या के मारे सामनेवाले के गुण सुकृत और धर्मसाधना के बावजूद अनुमोदना करना नहीं सूझता ! अतः यह लाभ भी नष्ट |
(iiv) उलटे ऐसे अच्छे व्यक्ति में भी कोई न कोई त्रुटि देखने को मन करता है; और उससे विषाक्त (जहरीले) संस्कार पड़ते हैं।
(v) ईर्ष्या सामनेवाले की निंदा भी करवाती है और निंदा करके स्वयं दुर्जनता अपने पर लेता है। और यदि वह निंदा उस व्यक्ति के कानों तक पहुँच जाए तो वह दुष्मन बनता है ! विरोधी बनता है और शायद मौका पड़ने पर इस निंदक
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