Book Title: Kuvalayamala Part 1
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 236
________________ शासनधन का उपयोग करना हो तो यह करोः शासन सम्पत्ति के सदुपयोग के लिए(१) परलोक का विचार जाग्रत रखो कि - “यहाँ जो कुछ करूँगा, कहूँगा सोचूँगा उसके संस्कार पडते ही जाएँगे और उसका परिपाक परलोक में भोगना ही पडेगा - अच्छे का अच्छा, बुरे का बुरा । पहले से चले आते हुए बुरे संस्कारों का इस भव में जितना हास करते जाएँगे, उतना भवान्तर में आत्मा का उदय होगा। - इसके बदले इन बुरे संस्कारों का जितना दृढ़ीकरण यहाँ करेंगे उतना महान अधःपात बाद के भवों में भोगना पड़ेगा । इसलिए विषयों और कषायों के बुरे संस्कार जिनके कारण यहाँ भी मर रहा हूँ उन्हें अब दृढ करना उचित नहीं। यह तभी संभव है जब उनकी प्रवृत्ति पर कैंची चलायी जाय ।" ऐसा ऐसा कितना ही परलोक का विचार जागृत रखना चाहिए । (२) उसी तरह, लोक निंदा का डर रखो। तुच्छ वृत्तियाँ, तुच्छ वाणी, तुच्छ कृत्य, तुच्छ मित्राचार आदि से लोक में अपयश मिलता है । शासनधन का उपयोग करना हो तो उसका भय रखकर ऐसी तुच्छ बाबतों से दूर ही रहना चाहिए । 'लोक की क्या परवाह ?' ऐसा घमंड रखने योग्य नहीं है,क्योंकि इस तरह लापरवाही करके तुच्छता का आचरण करने से लोगों के दिल को दुःख होता है तथा लोग धर्म के प्रति घृणा करने लगते हैं । फलतः दे बेचारे दुर्लभबोधि बनते हैं । अतः उनके प्रति ऐसी निघृणता कैसे रखी जा सकती है ? उसी तरह (३) हर एक प्रवृत्ति करते समय आसपास की परिस्थितियों का विचार जरुरी है । जो कुछ भी कहें-करें उससे पहले आसपास के संयोगों की तलाश करनी चाहिए, इसका खयाल करना चाहिए । अन्यथा उलटी तजवीज हो जाती है और उससे पछताना पडता है | चंडसोम की यही स्थिति होती है। (४) उसी तरह हमें अपनी स्थिति का भी विचार करना चाहिए । देखा देखी दौड़ लगाने से दूर जाकर पिछड़ जाना पडता है अथवा कायरता आदि के कारण वह भी खोना पड़े जो कुछ अच्छा करना संभव था । (५) तदुपरांत, न्याय-नीति की बुद्धि सदा जागृत रखनी चाहिए । हम अपने प्रति दूसरों की ओर से क्या चाहते हैं, न्यायी या अन्यायी खेल? नीति या अनीति? हम माल लेने जाते हैं तब ऐसी अपेक्षा रखते हैं कि व्यापारी नीतिमान् रहे, तो २२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258