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आएँ कहाँ से ?
फिर भी क्रोध में अंधे हुए चंडसोम को यह नहीं होता कि 'तो क्या वह सचमुच मेरी पत्नी ही होगी ? पत्नी हो तो वहाँ से रवाना होकर यहाँ जल्दी आ जानी चाहिए; क्यों नहीं आयी ? तो कहीं मैं भुल तो नहीं कर रहा हूँ ? चलो, घर में जाकर देख लूँ कि पत्नी सचमुच घर में है या नहीं ?' नहीं, उसे ऐसा कोई विचार नहीं आता । वह तो निश्चित मान बैठा है कि वह औरत मेरी पत्नी ही थी और वह अभी आएगी ।
ईर्ष्या कहाँ तक ले जाती है ? कैसे झूठे विचारों में घसीटती है ? ठोकर खाने पर भी गलत विचार से लौटने नहीं देती । यहाँ सोचा था उसके अनुसार पत्नी जल्दी नहीं आयी, धारणा को ठोकर लगी तो भी, 'तब तो वह मेरी पत्नी नहीं होगी' ऐसा मानने को तैयार नहीं । वह ईर्ष्या का मारा कल्पना में आगे बढ़ता है कि भले न वह जल्दी नहीं आयी लेकिन जरूर उसने उस आनी को घर या अन्य कोई स्थान साध रखा होगा; और यहाँ तो बहन घर में होने के कारण व्यभिचार करने यहाँ आए भी कैसे पर कोई चिंता नहीं, अपना काला मुँह कर के भी आखिर तो यहीं आनेवाली है न, सो भी नाटक खत्म होने तक तो आनी ही चाहिए, क्योंकि नाटक खत्म होने पर मेरा आना तो उसे मालूम ही है । अतः मैं यहीं छिपकर खड़ा रहूँ, अभी आ जाए तो तुरन्त ही उसकी खबर लूँ ।
चंडसोम ने दो को मारा
अभी तो यह विचार कर रहा है कि इतने में दो जन आते दिखाई दिये । अंधेरा है अतः चेहरे स्पष्ट पहचाने नहीं जाते । परन्तु इस मूर्ख को यह निश्चित कहाँ करना है कि 'ये दोनों सचमुच मेरी पत्नी और परपुरूष ही हैं या ओर कोई ?" यह तो अपनी पत्नी और उस पुरूष को ही मान बैठा है । अतः ज्यों ही वे दोनों दरवाजे से प्रवेश करने को होते हैं त्योंही यह उन पर तीक्ष्ण हथियार का प्राणघातक प्रहार कर देता है । जो खुजली उठी थी उसे इस तरह शांत कर 'बस ! मैंने पापियों को पाप का फल बराबर दिखा दिया', ऐसे वह कलेजे में ठंडक पाता है ।
प्रकृति और अभ्यास पर नियन्त्रण :
रौद्र ध्यान की कैसी नरक दायक परिणति ! भीषण कृत्य करने की कैसी जालिम लेश्या ! और ऐसा करने के बाद क्या ही पैशाचिक ठंडक ! बचपन से क्रोध को खूब पनपाया हो फलाया फुलाया हो, पाला-पोसा हो तो वह इतनी ऊँची कक्षा
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