Book Title: Kuvalayamala Part 1
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 233
________________ (डिग्री) तक पहुँच जाय इसमें कोई आश्चर्य नहीं । यह तो अवसर पर निर्भर करता है । मन में क्रोध का काफी अभ्यास करने पर, ऐसा मौका मिलने की ही देर । जैसा मौका वैसा शोला ! प्रकृति और अभ्यास क्रोध का बना दिया हो उसके बाद मौके पर उसका पारा काबू में या सीमा में कैसे रहे ? इसलिए ऐसे अकल्पित अवसर पर हम जालिम क्रोध में न फंस जाएँ इस हेतु से अब से ही क्रोध के स्वभाव एवं अभ्यास पर नियंत्रण लगा देने चाहिए। उसे रोकना, दबाना आवश्यक है, सो भी वक्त वक्त पर, अर्थात जब जब क्रोध आवे तब तब उसे दबाना ही चाहिए। और उसके बदले दया-क्षमा, समता का भाव पैदा करना चाहिए । जब इस का दीर्घकालीन अभ्यास हो जाय, तब जाकर गुस्सैल स्वभाव पर अंकुश आता है, वह हल्का पड़ता है और बाद ऐसे प्रसंग में भी भीषण क्रोध नहीं आता। छोटे से क्रोध से भी बचना : हाँ, यदि इस भरोसे पर रहे कि 'हम ऐसा उग्र क्रोध करते ही नहीं, और नीचे की कक्षा क क्रोध करते रहे तो, अवसर आने पर होश खोते देर नहीं लगेगी। अभी जो ऐसा गुसा नहीं दिखाई देता उसका कारण तो यह है कि अभी तक ऐसा जबरदस्त प्रसंग नहीं उपस्थित हुआ; अन्यथा क्रोध के स्वभाव और अभ्यास से संस्कार तो गढे हुए ही पडे हैं । इसलिए ऐसे गलत विश्वास पर रह कर रोज मरो के छोटे छोटे क्रोध को भी सहलाना-लाड़ लडाना (बहलाना) उचित नहीं । ___ यह डर तो रहना ही चाहिए कि 'कहीं ऐसा न हो कि मैं जो जरूरत पड़े तब तब क्रोध करता रहता हूँ सो कभी ऐसे अवसर पर उग्र स्वरूप धारण कर ले (उग्र रूप में फट पड़े) तब तो मेरे बारह ही बज जाएँ । ऐसे उग्र क्रोध का यहाँ चाहे कैसा ही मनचाहा फल दिखाई देता हो, अथवा आत्मतोष होता हो किन्तु उसके नरक की असंख्य वर्षों की दारूण यातना के परिणाम असह्य हैं । अतः उन परिणामों का आगमन रोकने के लिए बेहत्तर है कि यहाँ के मनचाहे तुच्छ फल या आत्मतोष की इच्छा न करूँ । इन्हें लाने वाले क्रोध से दूर रहूँ | ऐसे उग्र क्रोध की पूर्व भूमिका-स्वरुप चालू गुस्सैल स्वभाव और क्रोध के अभ्यास से ही दूर रहूँ । इस तरह की भावी महा अनर्थ की चेतावनी मन में रख कर सामान्य क्रोध भी नहीं करने का दृढ निर्धार आवश्यक है, संपूर्ण सावधानी के साथ प्रयल जरूरी है। यह अवश्य समझ रखना रहा कि - केवल क्रोध ही क्या किसी भी लघु दिखाई देनेवाले दोष में भी भावी महादोष के बीज निहित हैं। २२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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