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जिसका मूल्यांकन संभव नहीं ऐसा अमूल्य चारित्र । आप मेरी गटर के समान काया में उस की आहुति देने को तत्पर हुए हैं ? आपको शर्म नहीं आती ? रलकंबल की तो मुझे कीमत ही क्या है ? कीमत तो चारित्र की इतनी है जिसका हद नहीं। चारित्र-रत्न तो जनम-जनम (भवोभव) के जंजाल को नष्ट कर शाश्वत मोक्ष का साम्राज्य दिलाता है | संसार की दुःखद दुर्गतियों के भ्रमण मिटाता है। चारित्र को तो देवांगनाओं-अप्सराओं से घिरे हुए समकिती देव भी तरसते हैं । गुरू ने कितनी अपरंपार करूणा कर के आपको अनमोल चारित्र दिया, उसका नाश करने को तैयार हुए हैं आप? किसके पीछे ? मेरे शरीर के पीछे ? क्या भरा है मेरे शरीर में ? हाड़-मांस-रक्त-मल-मूत्र के सिवा है भी कुछ अच्छा इसमें ? उसका भी आनन्द कितने समय तक? अमरता है ? और इस चारित्र-नाश प्रतिज्ञा-भंग और काम-भोग के फल स्वरूप कहाँ जाना होगा ? इस के बारे में सोचा है ? क्या नरक की यातनाओं की जानकारी नहीं है ? आग सी दहकती हुई लोहे की पुतली का आलिंगन करने और परमाधामी देवों द्वारा होनेवाली काट-कूट, दिन-भेदन आदि सहने में वेदना कितनी ? और सो भी कितने वर्षों तक ? अतः समझ जाइये। महामूल्यवान चारित्र का नाश न कीजिये ।। __मुनि सुनकर ठंडे हो गये; अपनी दुर्दशापर आँखो में आँसू आ गये । पश्चात्ताप का पार न रहा । वेश्या से माफी माँगते हैं | और सीधे गुरू के पास पहुँच कर दोष विषयक आलोचना-प्रायश्चित करते हैं ।
ईर्ष्या की असली नींव पर कैसा करूण नाटक हो गया । यह तो एक ढंग हुआ। लोक जीवन का अवलोकन करें तो दूसरे कितने ही प्रकार के दुःखद प्रसंग देखने मिलेंगे । इसलिए कंठस्थ कर लो -
ईर्ष्या म कर जीवड़ा ईर्ष्या दारुण दोष । इहलोक परलोके ए करे, केइ अनर्थना पोष । ई० ईर्ष्या प्रेर्यो जीव वळी, करे अजुगतां कार्य, एवा दोष सेवे बहु बने आर्य अनार्य, ई०
कुपुरूषता का यह दूसरा लक्षण है । अब तीसरे लक्षण की बात |
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