Book Title: Kuvalayamala Part 1
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 225
________________ जवानी दीवानी; और संयोग निकृष्ट :__ अतः जवानी में सिर पर प्रौढों का दाक्षिण्य, भय, शर्म आवश्यक हैं । एकान्त में रहना, घूमना-फिरना नहीं होना चाहिए, ऐसे ललचाने वाले निमित्तों से दूर रहना चाहिए, और सत्संग, धर्मश्रवण-अध्ययन-मनन होना चाहिए | यह जवान यहाँ एक युवती के साथ अकेला पड़ा है इसीलिए वह उसके साथ मंत्रणा करता है, उसे ललचाता है। लबरे को क्या कहें?: वह स्त्री भी जवानी में है न ? तिस पर यह प्रलोभक सुयोग मिलता है । फिर वह भी क्यों उन्माद में न आ जाय ? अतः वह भी भटक तो जाती ही है, अतः ऐसा नहीं कहती कि, 'दुष्ट ! ऐसा अनुचित क्या बकता है ? क्या हम लोग कुत्तेकुत्तियाँ हैं कि कुत्ता हर किसी कुतिया को देख कर उसकी ओर खिंच जाय, या कुतिया कुत्ते की ओर ढल पड़े उसी तरह हम लोग व्यभिचार में फिसल जाएँ ? खबरदार ! अगर फिर ऐसा कहा तो - सामनेवाले बेईमान को वह न तो ऐसा कहती है, न उससे दूर जाकर बैठती है । बल्कि धीरे से उत्तर देती है, - 'मैं भी तुम्हारे मनोभाव जानती हूँ, परन्तु मेरा पति चंड है, वह यहीं कहीं हो तो मेरे तो बारह बजा देगा (मुसीबत कर देगा ।) चंडसोम को जिज्ञासा होती है : अब देखो ! चंडसोम इन दोनों की पीठ पीछे खड़ा है । वह यों भी पत्नी के प्रति शक्की तो था ही, यहाँ आया तब भी उस के दिल में अंदेशा तो था ही, कि "सूने पडे गाँव में से किसी युवक के साथ वह कोई कबाडा-दुष्कर्म (घोटाला) न कर बैठे, या यहाँ न आ जाय ।" ऐसे में यहाँ उक्त स्त्री के मुँह से सुना कि 'मेरा पति 'चंड' है -' आदि उसने 'चंड' पर से अपना ही नाम समझा और तुरन्त कल्पना कर ली (मान बैठा) कि 'देखो, मेरा शक सच निकला । यह कुलटा यहा आ गयी लगती है, और इस बेईमान से मंत्रणा कर रही है । तो मैं भी जरा सुनें- आगे क्या बातचीत चलती है ? वह आदमी उस स्त्री के जवाब पर से उसके मन को भाँप गया । अतः पहला उद्गार निकालते समय शायद वह हिचकिचाता या घबराता भी रहा हो कि 'यह क्या जवाब देगी ?' लेकिन अब जब वह औरत उसके मन के भाव को स्वीकार तो कर रही है, फिर आगे बढ़ने में संकोच या घबराहट क्यों रखी जाय ? २१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258