Book Title: Kuvalayamala Part 1
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 223
________________ सारा गाँव चला है नाटक देखने, क्योंकि मुफ्त मिल रहा है देखने को । तो क्या नाटक वाले मुफ्त में चला सकते हैं ? वैसे तो मुफ्त अर्थात् बिना पैसों की गिनती के कुछ नहीं चल सकता । परन्तु वे जानते हैं कि अच्छा दिखाने के बाद इनाम माँगने निकलेंगे तो खासा मिल जाएगा। आर्य प्रजा की सहज-वृत्ति ऐसी है कि जो मिले उसकी कद्र करना, उसमें मुफ्त देखनेवाले कृपण भी होते हैं, लेकिन सभी ऐसे नहीं होते । अतः (कद्रदाँओं) कद्रदानों से काफी कुछ मिल जाता है | अस्तु । चंडसोम विचार में : यहाँ जब गाँव के लोग देखने चलते हैं तो चंडसोम का भी देखने जाने को मन तो करता है लेकिन उसे, पत्नी से ईर्ष्या जो है ? वह सोच में पड़ जाता है कि 'इसे कैसे देखने ले जाया जाय ? क्यों कि वहाँ तो कई सारे जवान लोग आएँगे, इसलिए इस के और उन लोगों के आँखों के इशारे चला करेंगे । वह नाटक देखना तो एक ओर रह जाएगा और यह परस्पर आँखें मटकाने का नाटक चला करेगा। अतः पत्नी को लेकर जाना तो संभव ही नहीं। तब, देखने जाना भी है किंतु ऐसे इसे अकेली सूनी छोड कर भी में अकेला भी कैसे जाऊँ ? क्यों कि पीछे यहाँ किसी सधे हुए के साथ इसका तूफान चलेगा, इस तरह ईर्ष्या-वश गहरे सोच में पड़ गया, और गलत कल्पनाएँ करने लगा। ईर्ष्यालु को जीवनमें ऐसी ऐसी कितनी ही असार कल्पनाएँ और चिन्ताएँ चलती रहती हैं। अतः उसके पास कितनेही सुख-साधन क्यों न हों, फिर भी वह सुखी कहाँ से रह सकेगा? निश्चिंतता, शांति-स्वस्थता का कैसे अनुभव करेगा? इसीलिए कहा जाता है कि : सुख-शांति चाहते हो तो झूठी कल्पनाओं और ईर्ष्या से बचो। अन्यथा ईर्ष्या-असत्कल्पनाओं से खुद ही दुःखी होओगे, जीवनभर एक या दूसरी चिंता-संताप-अशांति चलती ही रहेगी। चंडसोम नाटक देखने को : चंडसोम को व्यग्रता तो हुई परन्तु उसे फिर नाटक देखने की लालसा तो जोर मार ही रही है, अतः रास्ता निकालता है - अपनी बहन सोमा से कहता है, "बहन! मैं जा रहा हूँ नाटक देखने और तुम दोनों घर पर आराम करना ।" उसको ऐसा लगा कि 'बहन पन्ती की रक्षा करेगी इसलिए जाने में हर्ज़ नहीं है ?' वह उसके सपुर्द कर के चला गया । - २१५ २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258