Book Title: Kuvalayamala Part 1
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 217
________________ उस पर मात्सर्य (२) दूसरे, स्वयं गुणवान् नहीं है और दूसरा गुणवान् है यह देखकर मात्सर्य होता है। दो किस कारण से ? गुणी को गुणी से द्वेष (खार) - पहला - गुणवान् को दूसरे गुणवान् पर खार-जैसे दानी को दानी पर, विद्वान को विद्वान पर, तपस्वी को तपस्वी पर, भक्त को दूसरे भक्त पर खार पैदा होने का कारण यह है कि खुद को गुणवान के नाते सम्मान मिलता है सो अच्छा लगता है परन्तु फिर दूसरे को इसी नाते सम्मान मिले तो सहन नहीं होता, उसमें जैसे अपना अहं खंडित होता है ऐसा लगता है; अहंकार पीड़ा देता है । ऐसा थोथा - झूठा अहंत्व - अभिमान सताता हो तो दूसरे गुणवान् को कैसे सहा जाए ? उस के प्रति प्रेम-प्रमोद कैसे रख सके ? वह तो खार (द्वेष) से जलता रहेगा। गुणी पर खार में गर्मित क्या है ? - संसार की यह कैसी विचित्रता है कि जीवन में गुण आने के बावजूद दूसरे के गुण नहीं सहे जाते ? तब इसका अर्थ तो यह हुआ कि हमारी नजर के सामने कोई दोषी आ जाए तो कोई हर्ज नहीं ! पर गुणवान् आवे तो हर्ज है । अर्थात् उसका अपना अंधा अहं दूसरे दोषी को देखकर खुश रखता है । ऐसा क्यों? कारण यह कि 'खुद उससे ऊँचा दिखाई देता है न ? बस इस बात की खुशी! कैसा पागलपन है कि किसी के दोष देखकर दिल को शांति मिलती है कि, अहा! ये सब मुझ से निम्न श्रेणी के हैं, दोषपूर्ण हैं, सो ठीक है ।' तो अब सोचिये कि अन्य लोग दोष में डूबे हों उससे हर्षित करनेवाली अधमता उसे ऊँचा उठने देगी? कितना अधम हृदय ? भावना का विश्लेषण कीजिये :स्वयं गुणवान् होते हुए मात्सर्य के कारण दोष पर प्रेम : हम अपनी भावनाओं का विश्लेषण नहीं करते उसके भीतर छिपे हुए विष की जाँच नहीं करते, इसलिए निष्ठुर बन कर फिर सकते हैं, इसकी जाँच करें तो चौंक उठे। विद्वान् को दूसरे विद्वान पर मात्सर्य होता है, वह खार रखता है । उसे क्या यह पता है कि इसका अर्थ तो यह हुआ कि इस भावना के भीतर यह गर्भित है कि स्वयं ज्ञानवान् होते हुए भी दूसरे अज्ञानी को देखकर खुश रहता है कि ‘हाँ, यह अनपढ़ रहा सो अच्छा हुआ जिससे मैं इससे ऊँचा मालूम होता हूँ । ' यह कितना भयानक ज़हर है । जगत के जीव बेचारे अज्ञानता में तो अपना सर्वनाश कर ही रहे हैं, उसकी अज्ञान-दशा पर प्रीति हो इस का अर्थ तो यही न कि उसके -२०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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