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आत्मदशा को सुधारे बिना उद्धार नहीं है। इस हेतु से पापों-दोषों को भयानक मानना ही चाहिए।
मानव-जीवन में आत्मदशा को सुधारना तो एक महान कार्य है, अनिवार्य कर्तव्य है और उसे करने का स्वर्ण-अवसर यहाँ मिला है। जीव ऊपर जो आता है उत्तरोत्तर ऊपर के गुणस्थानक पर चढ़ता है, ऊँची ऊँची साधना में आगे बढता है, सो सब आत्मदशामें सुधार के बल पर, और अधिकाधिक शुद्ध बनने से अभिमान आपमति, तृष्णा, जड़राग आदि घृणित भावनाओं से मुक्त होते से ऊँचे आता है ।
प्र० परन्तु आत्मदशा की समझ ही न पड़ती हो तो ?
उ० क्या हम इन सब अंहकारादि की पकड़ को जान नहीं सकते ? हम स्वस्थ बैठे हों और उतने में कोई ऐसा विचार आ जाता है, कुछ याद आ जाता है, या सामने ही कोई प्रसंग घटित हो जाता है तब अन्तर में यह अहंकार की मलिन भावना उठती है । देखा जाय तो हमें पता चलता है कि यह भावना उठी है और हम उसकी गिरफ्त में आ गये हैं । क्षणभर पहले हम स्वस्थ बैठे थे, और अब 'अयँ ? मेरा नुकसान करता है ? मुझे ऐसा कहता है ? यह कषाय का भाव जगा। यह समझ में आने जैसा है । यही है हमारी आत्मदशा का नाप कि दशा बुरी है।
आत्मदशा अच्छी रखनी हो तो यह विचार करना चाहिए कि - 'प्रथम तो यह खराबी हैं ऐसी समझ मुझे सदा जीवित रखनी चाहिए । कोई भी निमित्त मिले, चाहे जैसा प्रसंग उपस्थित हो, परन्तु उस में कषाय के मलिन भाव में फंसने की मुझे क्या जरूरत है ?' निमित्त या प्रसंग के विषय में तटस्थता से सोचा जा सकता है कि 'यह तो किसी कर्म के कारण उपस्थित हुआ है अथवा काल के प्रभाव से हुआ है या भावी-भाव के बल पर बनता है । इसमें हमारी विह्वलता क्या काम कर सकती है ? हम आत्मदशा को बिगाडे इतने भर से उसपर कोई असर होनेवाला नहीं इससे बच नहीं सकेंगे। हमें बाह्य निमित्त या प्रसंग अनिष्ट हानिकारक लगता हो तो हमें वहाँ से शांतिपूर्वक सरक जाना चाहिए, यही उपाय है, परन्तु अन्तर (हृदय) में क्रोध क्यों ? सामनेवाले से कुछ कहने योग्य लगे तो शांति से कह दिया जाय । अरे ! ऐसे प्रसंग में सख्त शब्दों में कहा जा सकता है परन्तु भीतर सावधानी रखकर कि हम अपनी आत्मदशा को न बिगाडें । दुनियामें बननेवाला बनता है - बिगडता है सो पाँच कारणों से। उसमें हमारे स्वयं बिगड़ने की आवश्यकता नहीं है।"
आत्मदशा को कौन बिगाडता है ? इतनी मुख्य बात समझ रखनी चाहिए कि हम ही अपनी आत्मदशा को बिगाडते
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