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गुरू गुण का सम्यक् प्रकार से जीवन भर अस्खलित - अखंड आदर ऐसे कुसंस्कार को पुष्ट कर देता है जो जीव को जन्म-जन्म के लिए अधोगति में ही डूबा हुआ रखे ! अतः देव-गुरू को स्वीकार करने में बहुत सावधान रहना चाहिए, भोले बन कर नहीं चल सकता ?
सुगुरूओं के वेश में कुगुरू क्या करते हैं ?
वे आरंभ-समारंभ परिग्रह तथा इन्द्रियोंके विषयों को धर्म के रूप में चलता कर देते हैं। "मकान बनाओ तो, कारखाना बनाओ तो, व्यापारिक कोठी खोलो तो, लो यह वासक्षेप डालना, समृद्धि बढेगी और समृद्धि बढेगी तो धर्म बढेगा ।" कुगुरू ऐसी भ्रान्ति और ढोंग फैलाते हैं। " ब्याह कर आये हो? तो लो हमारे आशीर्वाद दोनों का सौभाग्य अखंड बना रहे ! इस से परस्पर (एक दूसरे के लिए) धर्म के प्रेरक बनोगे । 'यह महा अज्ञान चल रहा है। धन के लिए तप रहे हो? तो लो यह जंतर मंतर यह पारसनाथ की साधना ये भावताव, सट्टे के अंक, इससे धन के ढेर लग जाएँगे ! फिर खूब धर्म करना ।" ऐसे नाटक चलते हैं । कुगुरू है तो और क्या करे ? भोले, मुर्ख और लालची जीवों को कुमार्ग पर चढा कर पाप को ही धर्म कह कर पकडा देते हैं। इसके बाद यह कुशिक्षा उसे सुगुरू को पकड़ने ही नहीं देती (इस कुशिक्षा के कारण वह सुगुरू को पकड़ ही नहीं पाता ) भयानकता तो यहाँ तक कि ऐसी एकदम पाप प्रवृत्तियों को भी वह धर्म ही मान-मान कर आचरण करता रहेगा । ऐसी स्थिती में उस का अफसोस कि 'हाय ! कब तक मैं इन पापों को निभाऊँगा ? ऐसे सुन्दर मानवभव में आकर भी ये पाप बन्द नहीं करने हैं ? मेरा क्या (हाल ) होगा ? आदि खेद करने की बात ही कहाँ रही ? अपने माने हुए गुरू ने खुद ही शादी पर मकान दुकान व्यापार धन दौलत पर मुहर लगा दी ! फिर इन्हें पापरूप गिनना कैसा ? इनका तो उमंग उत्साह से सेवन ही करना ! कुगुरू के पल्ले पडने से आत्मा की ऐसी दुर्दशा होती है ।
भक्त भी तो जोरदार होते है । जरूरत पड़ने पर सुगुरू को भी चक्कर में डाल देते हैं। कहेंगे - 'साहब, मेरे घर पदार्पण (पगले ) कीजिए, वासक्षेप - मांगलिक कर दीजिए ।' क्यों भाई ? मन मे यह बात घर कर बैठी है कि इस से घर परिवार में सुखसमृद्धि रहेगी, वंश - विस्तार होगा, खाते पीते सुखी रहेंगे । यह सब क्या है ? संसार का कारखाना ही ज्यों का त्यों अखंड चलता रहे । यही न ? उस पर गुरू की मुहर लगाना ?
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