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का उदय चालू रहने के कारण बचने की तो बात ही कहाँ ? उसी वक्त महावायु (जोर की आँधी) का तूफान आता है, और उससे बड़ी बड़ी चट्टाने सिर पर जोर से गिरती हैं, और भयंकर वायुवेग से शस्त्रों जैसे (तीक्ष्ण) पत्थर आकर शरीर के अंगों से टकराते हैं! इससे सिर फटते हैं । गर्दन से सिर अलग हो जाते हैं । आँखें फूटती है, कान कट जाते हैं और छाती-पेट पीठ-हाथ-पैर सब छिन्न-भिन्न होते हैं । हवा भी तीव्र आग की लपटों जैसी गर्म बहती है । वह भी जीवों को जलाती होती है । दूर दूर तक बीहड़ देखो तो कहीं ओर छोर नहीं, और धडाधड पत्थरमार की चारों ओर वर्षा। फिर भी वे नरक के जीव चीखते-चिल्लाते आगे आगे दौड़ते जाते हैं।
यहाँ मानव-भव में दूसरों के अप्रिय शब्द सहन नहीं होते, दिल में उथल-पुथल मच जाती है। कितनी ही उत्तम विचारधारा हो, चलती हुई रुक जाती है | और क्रोध कढ़न होती है, तब यह विचार कहाँ होता है कि "उन पत्थरों की धड़ाधड़ वर्षा होगी तब क्या करूँगा ? वह कैसे सहन होगी ? यहाँ बहुत मामूली मनोदुःख है, अतः वह न होने देने के लिए सहन करने का सूत्र अपनाओ |
गुफा की भयंकर पीडाएँ:
उन पत्थरों की चोट खाकर नरक के जीव दौड़ते दौड़ते जब सामने पहाड़ की गुफा देखते हैं तब छुटकारे का दम लेते हैं कि 'अहाहा ! इसमे घुस जाएँ तो इस पत्थर की झड़ी से बच जाएँ', परन्तु उनके अशुभ के उदय के कारण नरक में सब कुछ उन्हें सताने घुलाने के लिए ही होता है । इसलिए ज्यों ही वे जीव गुफा में प्रवेश करते हैं त्यों ही ऊँचे से बड़ी चट्टान उनके सिर पर धडाम करती गिर पड़ती है। उसके तले शरीर का चूर्ण हो जाता है, वेदना का पार नहीं, देखते हैं कि, हम भूल गये, कहाँ आकर फँस गये?' अतः कठिनाई से उठ कर बाहर निकलने दौड़ते हैं कि तभी वज्र के समान दीवार तीनों ओर से आमने सामने तेजी से आकर उन जीवों को दबा कर, कुचल कर पीस कर रोटी जैसा बना देते हैं । कैसी घोर यातनाएँ ? कही भी शान्ति है ? वहाँ उन्हें जो कुछ भी शांतिस्थल दिखाई देता है वह सब उन्हें भयानक पीड़ा देनेवाला बनता है।
विकुर्वित शिकारी पशुः
गुफामें से जैसे तैसे बाहर निकलते हैं कि तुरन्त देवों के विकुर्वे हुए (वैक्रिय शक्ति से उत्पन्न किये हुए) सिंह-सियार बाज़ आदि उन जीवों के शरीर पर टूट पड़ते है और उनके गात्रों को अपनी वज्र जैसी दाढ़ें से चबाने लगते हैं । फिर एक
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