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सांसारिक विटंबना है कि सोचा हुआ होता नहीं, नहीं सोचा हुआ हुआ करता है - ऐसी जिन्दगी की लाश को घसीटते रहना ? तो फिर पाागल मन किसलिए ऐसी सब अपेक्षाएं और इच्छाएँ किया ही करता है ? उपरांत जब पुण्य की पुंजी ही इतनी पहुँचती नहीं, इसलिए तो ऐसी आफते आती हैं । तो फिर ऐसे प्रबल पुण्य के अभाव में बेचारा जीव क्यों ऐसा मान लेता है कि “मुझे तो सब कुछ अनुकूल ही रहे, मुझे कोई आपत्ति प्रतिकूलता आनी ही नहीं चाहिए ?"
दोनों वस्तुएँ जीवको मूर्ख बनाती है
(१) एक तो दुर्बल पुण्य में भी इच्छाओं की भारी भीड़ रखी जाती है सो; और
(२) दूसरे - पुण्य कच्चा होते हुए भी केवल सुख का ही अधिकार माना जाता है सो।
दोनों गलत है । इच्छाओं का भार भी गलत और एक मात्र सुखसुविधा का ही अधिकार मानना भी गलत ।
(१) सोचा हुआ न बनने पर इच्छाएँ कम कर दो।
बहुत इच्छाओं से होनेवाली हानियाँ
बहुत इच्छाएँ - अपेक्षाएँ करते जाने से (१) जीव की लोलुपता पहले बढ़ती है । (२) आतुरता बढ़ती है। (३) असन्तोष - अतृप्ति पनपती रहती है। (४) चित्त उसमें विह्वल - व्यग्र - व्याकुल रहता है। जिस वस्तु की कामना की वह अब कैसे मिले किस तरह सिद्ध हो; अथवा नापसन्द - अच्छी न लगनेवाली वस्तु को दूर करने की बात हो तो वह कैसे दूर हो यही ध्यान, यह व्यग्रता - व्याकुलता रहा करेगी।
(५) जीव उसके उपाय में व्यर्थ हैरान होता रहेगा । फिर आत्महित की प्रवृत्ति भी हाथ में ली होगी तो भी इसमें स्थिरता नहीं होगी और जीव उसी में भटकता रहेगा। मानव अस्थिरता का शोर मचाया करता है कि मेरा चित्त धर्म साधना में क्यों स्थिर नहीं रहता?' ऐसी शिकायत किया करता है, परन्तु यह नहीं देखता कि जीव को नयी नयी इच्छाएँ कितना सताया करती है ?
चित्त की अस्थिरता अर्थात चंचलता का बड़ा कारण यह है कि दाग की तरह नयी नयी इच्छाएँ होती है या आ जाती हैं |
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