________________
'धर्मलाभ' की आशीष कैसी कही है ?
भव-भय को मिटानेवाली और शिवसुख दिलवाने वाली । 'क्या इतनी आशीष मात्र से भव-भय मिट जाता है ?' हाँ, जिसे संसार की विषय कषाय की होली का ताप सचमुच लगा हो उसे यह आशीर्वाद मिलते ही ऐसा प्रतीत होता है मानों खुद उपशम के शीतल कुंड में नहाया हो। वह इस शब्द में से भव्य प्रेरणा पाता है । शद्ध बोला किसके मुँह से जाता है ? जिन्होने जीवन में अकेला धर्म ही उतारा है। और सारे पापों को तिलांजलि दे दी है, समस्त जीवराशि को अपनी ओर से अभयदान देकर जो उनके बंधु बने हैं, ऐसे महात्मा के मुख से करुणाारस से भरा 'धर्मलाभ' शब्द निकलता है ! तो वह क्यों महान धर्मप्रेरणा न दे ? फिर तो सामनेवाले को धर्म का ऐसा प्रारंभ होता है कि वह उसे आगे बढ़ा कर सम्पूर्ण कर्म-क्षय तक ले जाकर भवचक्र के भ्रमण का अन्त दिलवाता है | और उसे शाश्वत मोक्षसुख में स्नान करवाने लगता है । 'तुम्हें धर्मलाभ हो' इस आशीर्वाद में ऐसी शक्ति है, न कि 'पुत्रवान् भव' धनवान भव आदि में । ऐसी आशिष मिलने से तो अज्ञान मोहमूढ जीव में विषय लालसा की आग और अधिक सुलगती है । इस लालसा में बेचारा पिस तो रहा ही है, ऊपर से उसके आशीर्वाद मिलने से आग में घी डालने से आग की लपटें एकदम भमक उठे वैसी स्थिति हो जाती है। जो स्वयं संसार त्यागी और विषय-विरागी हों वे क्या अपने संपर्क मे आनेवाले को ऐसी लपटें बढ़ा देंगे ?
मुनि आमंत्रित करते हैं :... कुमार कुवलयचंद्र को मुनिने 'धर्मलाभ' के आशीर्वाद दिये। फिर कहते हैं - " “कुमार ! तुम्हें विचार आया कि 'मैं पूयूँ कि मेरा अपहरण किसने किया और किस कारण से।' चिंता न करो, मैं यह सब तुम्हें बताता हूँ ।" __ मुनि अपने आप कुमार के पूछे बिना उसके दिल की बात कहते हैं, और उसके मन की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने का आमंत्रण देते हैं । अतः कुमार के आनन्द का पार न रहा ! वह पुनः प्रणाम कर के मुनि से कहता है, "भगवंत ! आपने तो सेवक पर बहुत ही अधिक कृपा की है कि सेवक के हृदय का अभिलषित आप कहेंगे।" ऐसा कह कर कुमार वहाँ मुनि के सम्मुख दोनों हाथों से अंजलिबद्ध बैठ गया । __ बड़ों से सुनने की यह रीति है कि हाथ जोडकर बड़ों के मुख पर दृष्टि रखकर बैठना । हाथ न छूटें, नजर इधर उधर न हो, तो बड़ों को भी सुनाने में रस बना
१२९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org