________________
चल रहे थे ! तिस पर खुबी यह कि उनके बराबर बराबर खरगोश, हिरन आदि पशु भी निर्भयतापूर्वक चल रहे थे । शिकार और शिकारी (भक्ष्य और भक्षक) दोनों जाति के पशुओं के बीच मैत्री का व्यवहार दिखाई देता था ! यह देखकर कुमार चमत्कृत हुआ कि 'यह क्या ? ये परस्पर विरोधी प्राणी विरोध के बिना एक साथ शांति से फिर रहे हैं।' मन में हुआ कि 'क्या यह जंगल या ये प्राणी ही दुनिया से विचित्र ढंग के होंगे ? नहीं, नहीं, यह तो इस भूलोक की ही वस्तु है । इसमें औरों से अलग ऐसी विलक्षणता कहाँ से ( काहे की ) होगी । सनातन काल से जो प्राणी एक दूसरे को दुश्मन के रूप में देखते हैं वे ऐसे परस्पर प्रेम का व्यवहार करनेवाले कैसे हो सकते हैं ? '
हलके- निम्न भव में जन्म लेने मात्र का पुरस्कार :
संसार की लीला ही ऐसी हैं कि बिल्ली चूहे को, बाघ-सिंह बकरी को या हिरन को शिकार के रूप में ही देखते हैं । इसका अर्थ यह है कि वैसे वैसे प्राणी को यह जन्मसिद्ध पुरस्कार है । यहाँ मनुष्य-रुप के जन्म में भले ही इन प्राणियों को शिकार रुप में न माना हो परन्तु रात्रि भोजन आदि किसी पापाचरण तथा गाढ आसक्ति राग-द्वेष-मिथ्यात्व आदि दुष्ट भाव के कारण जीव यदि बिल्ली, बाघभेडिये आदि के अवतार में जा पड़ा तो जन्म से चूहे, हिरन वगैरह को शिकार के तौर पर ही देखेगा फिर यहाँ से भी कितने अधिक घोर घातक पापाचरण शरु हो जाते हैं ? उसके फल स्वरुप बादमें हलके- तुच्छ भवों की कैसी परंपरा चलती
?
इसीलिए ऐसे अधम अवतार को पैदा करने वाले पापाचरणों और दुष्ट भावों से बचना चाहिए। जीवन में कितने ही पाप कृत्य पारिवारिक जनों की शर्म से या मूढ लोगों के अनुकरण से या लोगों में अच्छा दिखे इस उद्देश्य से होते हैं परन्तु उसमें कर्म को शर्म नहीं होती कि पापकर्म न चिपके और पुण्य कर्म को अच्छा लगने जैसा कुछ नहीं है कि वह खुश हो कर आत्मा में आ जाय !
कर्म तो जीव के अपने आचरण एवं भाव को देखते हैं । परन्तु उनका सेवन करते समय जीव के लिए हुए निमित्त को नहीं देखते। किसी ने हमें बिना कसूर मारा और हमने गुस्सा किया तो कर्म यह नहीं देखता कि 'इस गुस्से में तो दूसरे का दोष था इसलिए माफ करूँ ।' नहीं,
Jain Education International
१०८
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org