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था । 'विनय के बिना विद्या नहीं? - आज वह बुनियादी वस्तु विनय है कहाँ ? विद्यार्थी आराम से बैंच पर बैठे बैठे सुनते है | और मास्टर या प्रोफेसर खड़ा खड़ा पढ़ाता है | गुरु की सेवा कहाँ है ? पढाने की पद्धति में भी पूरे विषय का विभाजन कर के हर विभाग में निश्चित संख्या में मुद्दों की योजना कर के ऐसी सुसंकलित रीतिसे पढाना कि विद्यार्थी अपनी अंगुलिया के पोरों पर सब गिन कर बता सकें । उसी तरह प्रत्येक मुद्दे का विवेचन भी ऐसा कि उसकी व्याख्या, उसके लक्षण, दृष्टांत, गुण-दोष वगैरह ऐसे मुद्देसर ढंग से करना कि वह वस्तु विद्यार्थी की नजर के सामने दर्पण - आइने की तरह खड़ी हो जाय | आसानी से कंठस्थ हो जाय । यह पद्धति भी कहाँ है ? यह नहीं, फिर विद्यार्थी प्रतिदिन और जहाँ से वह ग्रन्थ शुरु किया वहाँ से सारा पारायण दिनोदिन कर जाय, यह पद्धति भी कहाँ है ? यहाँ तो आज का सीखा हुआ घर जाकर आज या कल देख ले कि बस हुआ। दूसरे दिन, तीसरे दिन ऐसे हर रोज उसे कौन देखता - याद करता है ? केवल परीक्षा के समय कुछ इधर उधर की मेहनत कर लेना; ३०० पृष्ठों की पुस्तक में से करीब ६० पृष्ठों की बात पूछी जाय, तदुपरांत आठ में से किन्हीं पाँच प्रश्रों के उत्तर लिखना; उस में भी १०० में से ३५ मार्क पा लेना अर्थात उस विषय में उत्तीर्ण । यह है आज की शिक्षापद्धति । उसमें भला ज्ञान भी कैसा हो ?
कुमार की विशेष कुशलता किसमें ?
राजकुमार कुवलयचन्द्र पुरुषों की बहत्तर (७२)कलाओं में पारंगत हो गया है । बारह वर्षों में बहुत बहुत सीख कर आया है । उपाध्याय ने सबका ब्यौरा दिया, तब राजाने पूछा 'इन सबमें से कुमारने कौनसी कला विशेष रुपसे ग्रहण की और पचायी है ?'
उपाध्याय ने उत्तर दिया - " महाराज ! कुमार को जो जो कला वैसे सामान्य रुप से सिखायी गयी, तो भी कुमार तो उस उस कला में अधिक निष्णात हो गया है, अतः ऐसी कोई कला नहीं जिसमें विशेष पारंगता प्राप्त न की हो, फिर भी मेरे कहना ही रहा कि कुमार ने (१) सकल सौभाग्य के कारण स्वरुप और सत्पुरुष की पहली योग्यता रुप दाक्षिण्य पहले सीखा है। दाक्षिण्य के कारण (i) वह दूसरों की प्रार्थना का भंग नहीं करेगा । और (ii) अकार्य करने से लज्जावश पीछे हटेगा । (२) दूसरे - अपने उत्तम कुल को शोभित करने वाला और मान -प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला विनय उसने सुष्ठुरूप से आत्मसात किया
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