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को गुदगुदानेवाली विलासी कथा का पठन, आदि में फँसने के कारण कैसा वीर्यनाश हुआ जा रहा हैं । उसके परिणाम कितने भयानक, निकलते है । इस का आज के भोले लोगों को भान नहीं है । 'इतना सा देखा, पढा, उसमें क्या बिगड़ गया, उल्टे इस में तो मज़ा आता है । कहानी में से जानने को मिलता है।' ऐसे ऐसे नादान साहस कर उनमें कूद पड़ते हैं ।
प्रत्येक मोहमूढ रूपदर्शन या रूपश्रवण या रूपस्मरण शरीर के राजासमान वीर्य को हानि पहुँचाता है ।
उपरांत, जानबूझ कर किये गये दर्शन - श्रवण - स्मरण जीव के सत्त्व गुण का भी नाश करते हैं ।
वीर्य नाश से मन व इन्द्रियाँ दुर्बल
शरीर का वीर्य और आत्मा का सत्त्व तो जीव के अभ्युदय में बहुत बडा भाग अदा करते हैं । इनके द्वारा मन की स्फूर्ति एवं ओज विकस्वर रहते हैं ।
वीर्य का नाश हो गया तो मन गंदे और निम्न विचारों में भटका करेगा, चंचल बना रहेगा | उत्तम, उदात्त भावनाओं के लिए असमर्थ - सा बन जाएगा । शरीर में भी जोश न रहने से वह निर्जीवसा होकर सत्पराक्रम, सत्क्रिया आदि में निष्क्रिय रहेगा । इन्द्रियाँ भी वीर्य के अभाव में कमजोर पड जाएँगी ।
सत्त्व का नाश होने से सुकृत की उमंग नहीं
मतलब, सत्त्व का हनन होता रहा तो आत्मा जरा जरा में मलिन वृत्तियों, मैली भावनाओं, और कामक्रोधादि आवेशो के वशमें हुआ करेगा । कोई अच्छे सुकृत या सद्गुण की बात आने पर सत्त्व हीनता की वजह से उसे कोई उत्साह नहीं जगेगा। हम देखते ही है न कि कोई दान, फंड आदि की बात आते ही कितनेही लोगों के मन खिन्न हो जाते है, कि 'यह कहाँ आगया ?' जरा से त्याग की बात आते ही मन अस्वस्थ हो जाता है कि 'इसमें अपना काम नहीं ।' ऐसा क्यों ? सत्त्व मर गया है, नहीं तो मिसाल के तोर पर समझिये 'महिने में ५ या १० दिन मिठाई नहीं खाना' ऐसा नियम लेना हुआ तो उसमें कौन सी बडी बात हो गयी ? यों भी कहाँ हर रोज मिठाई खाने मे आती है ? परन्तु नियम लेने की बात जो हुई, इसलिए सत्त्वहीनता के कारण रोगी मानस को लगता है कि 'सौगन्ध लूँ और कदाचित खाने को मौका मिल जाय तब क्या हो ?' इस तरह आशा ही आशा में जीव मरता है । अपना ललाट नहीं नापता कि वर्तमान संयोगों
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