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कराए। __ आप जिनभक्ति से होनेवाले लाभ का अगर इस तरह मूल्यांकन करें तो उसमें अपने भरपूर द्रव्य और समय का व्यय करने में हमेशा उत्साहित ही रहेंगे। ___ जो मंदिर उपाश्रय आदि आपको लाखों का पुण्य देते हैं, क्या उनके लिए कुछ भी नहीं देना ? क्या केवल रूखा सूखा जिनदर्शन, रूखी पूजा, रूखा देव वंदन, रूखा जिनवाणी श्रवण ? सब कुछ एक लाल पाई के भी व्यय के बिना, रूखा ही रूखा किया जाय ? लाभ तो लाखों का लेना और देना कुछ नहीं । बाजार में सामान्य सा माल भी कहीं मुफ्त में मिलता है सही ? ऐसे लेने जाय तो हराम का खानेवालों में शुमार हो न ? तब यहाँ साधारण (खाते) में घाटा क्यों? कृतज्ञता नहीं है हरामखोरी है । देव गुरु धर्म प्यारे हैं, लाभ प्यारा है पर मेरा धन मुझे अधिक प्यारा है । अतः उनके लिए पैसा नहीं जाने दूंगा।" ऐसी घातक धन मूर्छा है (धर्म का मोह है) तथा करोड़ों के मूल्य के एवं जनम जनम के रिश्तेदार -सगे -देव गुरू धर्म की तुलना में कौडी की कीमत के नश्वर धन को अधिक मूल्यवान मान लिया है । वहाँ फिर श्रेणिक सुलसा का सा अरिहंत-प्रेम, कुमारपाल - वस्तु पाल की सी गुरूभक्ति और विमलशा - धरणाशा (धना पोरवाल) के समान धर्म-रंग कहाँ आएगा । कहते हैं -
प्र० देव-गुरु-धर्म के लिए हमें ऐसी भावना क्यों नहीं होती ? क्यों ऊछलता हुआ रस नहीं होता ? ___'उ० कहाँ से हो ? मुफतखोर बने रह कर लाभ लूटना हो तब प्रेम और रस कहाँ से जगे ? __अगर देव-गुरु-धर्म के प्रति प्रेम और रस जगाना हो तो उसकी एक एक बात में तन-मन-धन की बलि देनी चाहिए ।
राजा ने मंत्रियों से पूरी बात कही कि किस तरह देवी का वरदान मिला, तब मंत्रियों ने कहा - 'महाराज ! हमने तो कहा ही था कि जब तक मनुष्य काम को अपना दिल नहीं देता तभी तक कार्य सिद्ध नहीं होता । यदि ह्रदय दिया तो कार्य सिद्ध हुआ ही समझिये । । तत्पश्चात् राजाने रानी को शुभ समाचार सुनाया, तब रानी प्रसन्न होकर कृतज्ञापूर्वक हाथ जोड़ कर कहती है - "आपने मुझ पर बड़ी कृपा, मेहरबानी की।" जीवन में कृतज्ञता तो कदम-कदम पर दिखानी होती है।
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