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दीन-अनाथों को दान दिये । .... क्या क्या किया ? सिर्फ अकेले बाजे बजवाना नहीं, यह सब उचित व्यवहार चाहिए । यह मूल वस्तु के फल के स्तर को बढ़ाता है, फल को उच्च बनाता है । एक कुल दीपक पुत्र, कुल में सूर्य के समान पुत्र कैसे मिले? पूर्व भूमिका में ऐसी कोई महिमा किये बिना ? यों देवाधिदेव के पास से तथा गुरु के पास से उच्च धर्म की प्राप्ति किस तरह हो ? भूमिका में कुछ भी किये बिना ? कुछ बलिदान दियें बिना ?
मुफ्तखोर की रीति रस्म अपनायी जाती है इसीलिए उच्च 'धर्म-प्राप्ति की सामग्री मिलने पर भी यह धर्म प्राप्त नहीं होता।
स्नात्र तो सुन्दर पढ़ाया परन्तु बादमें पुजारी को-मंदिर के आदमी को दान दिया ? बाहर दीनदुःखियों को तृप्त किया ! देवाधिदेव के चरणों में पड़ कर यह उपकार माना भी सही कि 'प्रभु ! तूने मुझ पर बहुत बड़ी कृपा की कि महान् स्नात्र का लाभ दिया ? आज मैं इसकी कृतज्ञता के रूप में इतनी रकम का पुण्य करूँगा | आज इस विगई रस का त्याग करूँगा । इनमें से कुछ न करना, और हृदय में उछलनेवाला रस जमाना है ! जमेगा ?
शारीरिक रोग की तरह आत्मिक रोग के पीछे कितना कितना खर्चना - करना?
एक शरीर के रोग में कोई सेवा कर जाय, दवाई दे, अरे, आश्वासन दे जाय तो उस का कितना सारा उपकार माना जाता है, बाद में उसका बदला चुकाने की आतुरता होती है, और यथासंभव सेवा कर ली जाती है, तो फिर आत्मा के रोग में कोई सेवा-दवा-आश्वासन दे उसका कुछ नहीं करना ?
आत्मा को विषयमूढ़ता, इन्द्रिय-दासता, कषायज्वर, मद-ईर्ष्यादि विकार आदि सब कितना कितना चिपका हुआ है ? कितनी कितनी पीडाएँ हैं । उनके निवारण हेतु देवदर्शन-पूजन-स्नात्र, अंगरचना, गुरुवंदन व्याख्यान-श्रावण, हितशिक्षा, उत्तम त्याग-तप व्रत नियम शास्त्र आदि का मिलना - यह सब सेवा दवा-सान्त्वना मिलने के समान है, यह जो मिलता है उसके पीछे कौनसी कृतज्ञता प्रकट करते हो ? क्या त्याग करते हो ? नहीं, कुछ नहीं । यह मुफ्त खोरी पच जाएगी । पचे? हृदय में इस तरह भला धर्म के रंग उछलेंगे ?
राजा ने उचित पूजा-सत्कार दानादि कर के सभा एकत्र की। क्यों? स्वप्न का निश्चित अर्थ जानना है, इसी लिए सिर्फ मंत्रियों अथवा ज्योतिषियों को ही नहीं अपितु अनेक बुद्धिमानों को बुलवाया, वहाँ महान वीर पुरूष, बड़े वैद्य, विद्वान् ब्राह्मण, कवि पुरोहित, वारांगनाएँ, चित्रकार, लक्षण-शास्त्री, सेनापती, धातुवादी,
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