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भी देखा जाता है न कि अच्छे दान आदि धर्मपराक्रम करनेवाले पिता के पुत्र धर्म के कायर होते हैं । ऐसी भी देखा जाता है कि शूरवीर पिता के पुत्र डरपोक होते हैं | पुछो,पराक्रमी के पुत्र पराक्रमी क्यों नहीं ?
प्र. इसका कारण क्या ? सिंह के बच्चे तो सिंह जैसे पराक्रमी व सियार के बच्चे उसके जैसी ही कायर होते हैं न ? तो फर्क का कारण क्या ?
उ. यहा पूर्व के संस्कार काम करते हैं, यही अन्तर का कारण है । पूर्व के संस्कार कायरता के होते हैं, परन्तु पराक्रमी के यहा जन्म लेने का पुण्य लेकर आया हो, जिससे पराक्रमी के यहाँ जन्म लेने पर भी संस्कारवश कायर पकता है । हाँ समझदार बने, विवेकी बने और पराक्रम का नया अभ्यास शुरु करे, तो पराक्रमी बन सकता है। अकेले पूर्व-संस्कार के गुलाम भी नहीं बने रहना है। उसमें भी विपरित अभ्यास से फेरफार हो सकता है | धर्म के संस्कार भी कहाँ अनादि से लेकर आये हैं ? यह तो बार-बार पापसंस्कारसे विपरित धर्म का अभ्यास करते जायें, विविध साधना करते जायें, तो पापसंस्कार मिटते जायेंगे और धर्मसंस्कार जमते जाते हैं।
यह बालक पूर्व के ऐसे ही कोई शूरवीरता के संस्कार लेकर आया होगा, इसीलिये लडाई करने के लिये तैयार हो गया और यहाँ सभा में भी दीनता दिखाये बिना अदीन दृष्टि से देखता-देखता राजा के पास आ पहुँचता है |
राजा को तो यह देखकर आनंद नहीं समाता । जैसे ही बालक उसके समीप आया कि राजा ने स्नेह भरे हृदय से दो हाथ लंबे करके उसे उठाकर अपनी गोद में बिठा देता है और उसे गले से लगाता है । उसके मुँह में से उदगार निकलते हैं :- अहो ! इस का पिता तो वज्र जैसै कठोर दिल का होगा कि जो इसके बिना
भी जीता है।' ___ वहाँ महारानी भी स्नेह-सभर होकर बोल उठी कि धन्य है उस युवती को, जिसको ऐसा पुत्र है । परन्तु वह भी वास्तव में कठोर होनी चाहिये कि जो पुत्र के विरह में जो प्राण टिकाकर रही होगी।' __ मंत्री कहते हैं, 'महाराज ! क्या कहा जाय ? यह तो भाग्य का चमत्कार है,
और अपने पुण्य से यह हुआ है कि अपने पास ऐसा रन आ गया है । लोक में ये संपत्तियाँ किसीको मिलने पर भी न मिली हो जाती है, जबकि किसी को न होने पर भी मिल जाती है ।' दृष्टिविन्दु की मित्रता से अलग-अलग भाव :
यह बालक चीज़ एक है, फिर भी उस पर राजा, रानी और मंत्रियों को अलग
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