Book Title: Karnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 32
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका उ०-सब भोगभूमियाँ तीस हैं। जिनमेंसे पांच मेरु सम्बन्धित, पाँच हैमवत और पांच हैरण्यवत इन दस क्षेत्रोंमें जघन्य भोगभूमि है। पाँच हरि और पाँच रम्यक इन दस क्षेत्रोंमें मध्यम भोगभूमि है। पाँच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु इन दस क्षेत्रोंमें उत्तम भोगभूमि है। ६४. प्र०-क्या भरतादि क्षेत्रों में सदा एक सी ही अवस्था रहती है ? उ०-भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालके छै समयोंके द्वारा परिवर्तन हुआ करता है। शेष क्षेत्रोंमें सदा एक-सा ही काल बरतता है। ६५. प्र०-अवपिणी और उपिणी काल किसे कहते हैं ? उ०-जिस काल में मनुष्य और तिर्यञ्चोंकी आयु, शरीरकी ऊँचाई और विभूति आदि घटते रहते हैं उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं और जिस काल में ये बढ़ते रहते हैं उसे उत्सर्पिणो काल कहते हैं। ६६. प्र०-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालके छ भेद कौन से हैं ? उ०-सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा दुषमा, दुषमा सुषमा, दुषमा और अतिदुषमा ये छै अवसर्पिणो कालके भेद हैं और अतिदुषमासे सुषमासुषमा पर्यन्त छै भेद उत्सर्पिणी कालके हैं। ६७. प्र०-भरतक्षेत्रमें परिवर्तनका क्रम कैसा है ? उ०-सुषमासुषमा कालके आदिमें भरतक्षेत्रमें उत्तम भोगभूमि रहती है । सुषमासुषमा कालका प्रमाण चार कोड़ाकोड़ो सागर है। फिर क्रमसे हानि होते होते सुषमा कालका आरम्भ होता है। उसमें मध्यम भोगभूमि रहती है उसका प्रमाण तोन कोड़ाकोड़ी सागर है। फिर क्रमसे हानि होते होते सुषमादुषमा काल आरम्भ होता है उसमें जघन्य भोगभूमि रहती है। तोसरे कालमें एक पल्योपमका आठवाँ भाग शेष रहनेपर कुलकर उत्पन्न होते हैं जो भोगभूमिसे कर्मभूमि होते समय जो कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं उन्हें दूर करके जनताका उपकार करते हैं । अन्तिम कुलकरके पश्चात् यहाँ चौथा दुषमासुषमा काल बरतने लगता है और कर्मभू मका आरम्भ होता है। इस काल में यहाँ त्रेसठ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं। वीर भगवान्का निर्वाण होने के पश्चात् तोन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष बीतने पर पाँचवें दुषमाकालका प्रवेश होता है। उसका प्रमाण इक्कीस हजार वर्षे है। इस कालमें धर्म वगैरहका ह्रास होता जाता है। जब इस कालमें तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहते हैं तो अन्तिम मुनि आर्यका श्रावक और श्रावकाका मरण होता है और धर्मका उच्छेद हो जाता है। तब अतिदुषमा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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