Book Title: Karnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 86
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल बीतनेपर ही उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन है; क्योंकि एक अनादि मिथ्यादष्टि जोवने उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्त संसारको अर्ध पुद्गल परावर्तनमात्र किया। पुनः अन्तर्मुहूर्ततक सम्यग्दृष्टि रहकर वह सासादनसम्यक्त्वी हो गया। वहाँसे मिथ्यात्वमें चला गया और अर्धपुद्गल परावर्तन कालतक मिथ्यात्वमें रहकर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ। इस तरह उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना। ४२५. प्र०-सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका अन्तरकाल कितना है ? उ०-नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यका असंख्यातवाँ भाग है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन है। इसका उपपादन सासादन सम्यग्दृष्टिके अन्तरकालको दृष्टि में रखकर कर लेना चाहिए। ४२६. प्र०-असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुण. स्थान तक प्रत्येक गुणस्थानका अन्तरकाल कितना है ? उ०-नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। क्योंकि उक्त गुणस्थानोंमें सदा ही जीव पाये जाते हैं। एक जीवको अपेक्षा उक्त गुणस्थानोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है। वह इस प्रकार है-एक असंयत सम्यग्दृष्टि संयमासंयमको प्राप्त हुआ और एक अन्तर्मुहूर्त तक संयमासंयमी रहकर पुनः असंयत सम्यग्दृष्टी हो गया। एक संयतासंयत मिथ्यादष्टि हो गया या असंयत सम्यग्दष्टो अथवा संयमो हो गया और एक अन्तर्मुहर्त तक वहाँ रहकर पुनः संयतासंयत हो गया। इसी तरह एक प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत होकर पुनः प्रमत्तसंयत हो गया और एक अप्रमत्तसंयत उपशम श्रेणोपर चढ़कर पुनः लौटा और अप्रमत्तसंयत हो गया। इसी तरह प्रत्येक उक्त गुणस्थानका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होता है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन है । सो अनादि मिथ्यादृष्टि जीवको सम्यक्त्व उत्पन्न कराकर उस गुणस्थानमें भेजना चाहिये और वहाँसे च्युत कराकर पुन: मिथ्यात्वमें लाकर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक भ्रमण कराकर, पुनः सम्यक्त्व उत्पन्न कराकर उस गुणस्थानमें ले जाना चाहिये । इस तरह करनेसे उत्कृष्ट अन्तरकाल निकलता है। ४२५. षट्खण्डागम, पु. ५, पृ० १४-१५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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