Book Title: Karnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 127
________________ १०६ करणानुयोग-प्रवेशिका ग्यारह प्रकृतियां परोदयसे बंधती हैं, अर्थात् तीर्थङ्कर प्रकृतिके उदयवाले के तीर्थंकरका बन्ध नहीं होता । इसी तरह नारकी के नरकायुका और देवके देवायुका बन्ध नहीं होता । ७१२. प्र० - स्वोदय से बँधनेवाली प्रकृतियाँ कौन हैं ? उ०- पाँच ज्ञानावरण, पांच अन्तराय, चार दर्शनावरण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस और कार्मण शरीर, निर्माण, अगुरुलघु, वर्ण आदि चार और मिथ्यात्व ये सत्ताईस प्रकृतियां स्वोदयसे बंधती हैं । अर्थात् जिसके मिथ्यात्वका उदय होता है उसीके मिथ्यात्वका बन्ध होता है । इसी तरह शेष छब्बीस प्रकृतियोंके विषय में भी जानना । ७१३ प्र० - स्वोदय और परोदय से बँधनेवाली प्रकृतियाँ कौन-सी हैं ? उ०- परोदय बन्धो ११ और स्वोदय बन्धी २७ प्रकृतियोंके बिना शेष ८२ प्रकृतियाँ स्वोदय से भी बंधती हैं और परोदयसे भी बंधती हैं । ७१४. प्र० – निरन्तर बँधनेवाली प्रकृतियाँ कौन सी हैं ? 0 उ०- संतालीस ध्रुवप्रकृतियां तीर्थंङ्कर, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग और चार आयु ये चौवन प्रकृतियां निरन्तर बँधती हैं । ७१५. प्र० - ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ कौन सी हैं ? उ०- - पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पांच अन्तराय, मिथ्यात्व सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस और कार्मण शरीर, वर्ण आदि चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण ये सैंतालीस प्रकृतियां ध्रुवबन्धी हैं । ७१६. प्र० -- निरन्तरबन्ध और ध्रुवबन्ध में क्या भेद है ? उ० - जबतक बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती तबतक जिन प्रकृतियोंका प्रति समय अवश्य बन्ध होता है उन्हें ध्रुवबन्धी कहते हैं । उक्त सैंतालीस प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छित्ति से पहले प्रति समय सदा निरन्तरबन्ध होता है किन्तु तीर्थङ्कर और आहारकका बन्ध प्रारम्भ होनेके बाद जिन गुणस्थानों में उनका बन्ध पाया जाता है उनमें उनका प्रति समय निरन्तर बन्ध होता है तथा आयुका बन्ध जिस कालमें होना योग्य है उस कालमें आयुबन्ध होने पर अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर बन्ध होता रहता है । इसलिये इनको निरन्तरबन्धी कहते हैं । ७१७. प्र० - सान्तरबन्धी प्रकृतियाँ कौन सी हैं ? उ० – स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार जाति, असातावेदनीय, नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अरति, शोक, अन्त के पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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