Book Title: Karnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 114
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका ६२२. प्र० - पुद्गलविपाकी प्रकृति कितनी और कौन-सी हैं ? उ०- पांच शरीर, पांच बन्धन, पांच संघात, छै संस्थान, तीन अंगोपांग, छै संहनन, पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श, निर्माण, आताप, उद्योत स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, प्रत्येक, साधारण, अगुरुलघु, उपघात, परघात - ये बासठ प्रकृतियां पुद्गल विपाकी हैं । ६२३. प्र० - भवविपाको कर्म किसको कहते हैं ? उ०- जिसका फल मनुष्यादि भव रूप हो । ६२४. प्र० - भवविपाकी प्रकृतियाँ कौन-सी हैं ? उ०- चारों आयुकर्म भवविपाकी हैं । ६२५. प्र० - क्षेत्रविपाको कर्म किसको कहते हैं ? उ०- जिसके फलसे परलोकको गमन करते समय विग्रहगतिमें जीवका आकार पूर्व शरीरका-सा बना रहे । ६२६. प्र० - क्षेत्रविपाकी प्रकृतियाँ कौन-सी हैं ? उ०- चारों आनुपूर्वी नामकर्म क्षेत्रविपाकी हैं । ६२७. प्र० - - जीवविपाकी कर्म किसको कहते हैं ? ६३ उ०- जिसका फल जीवमें हो । ६२८. प्र० - जोवविपाकी प्रकृतियाँ कितनी और कौन-सी हैं ? उ०- दो वेदनीय, दो गोत्र, घातिया कर्मोंकी ४७ प्रकृतियाँ तथा नामकर्मकी सत्ताईस ( चार गति, पांच जाति, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुभग, दुभंग, सुस्वर, दु:स्वर, आदेय, अनादेय, यशस्कीर्ति, अयशस्कीति और तीर्थंकर) ये अट्ठहत्तर प्रकृतियां जीवविपाकी हैं । १३ ६२९. प्र० -- ज्ञानावरण कर्मके कितने बन्धस्थान हैं ? उ०- ज्ञानावरण कर्मका एक ही बन्धस्थान है क्योंकि ज्ञानावरण कर्म की पांचों प्रकृतियां दसवें गुणस्थान तक प्रत्येक जीवके बंधती हैं और उसके बाद पांचों ही नहीं बंधती । ६३०. प्र० -- दर्शनावरण कर्मके कितने बन्धस्थान हैं ? उ०- तीन - नौप्रकृतिक, छैप्रकृतिक और चारप्रकृतिक । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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