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करणानुयोग-प्रवेशिका
६३१. प्र० - दर्शनावरणकर्मके नौप्रकृतिक बन्धस्थानका स्वामी कौन है ? उ०- मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके दर्शनावरण कर्म की नौ प्रकृतियां बंधती हैं। आगेके गुणस्थानोंमें निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला और स्यानमृद्धिका बन्ध नहीं होता ।
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६३२. प्र० - दर्शनावरणकर्मके छप्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन है ? उ० - सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम भाग तक उक्त तीन निद्राओंके सिवाय शेष छै प्रकृतियोंका बन्ध होता है । आगे निद्रा और प्रचलाका बन्ध नहीं होता है ।
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६३३. प्र० - व्युच्छित्ति किसको कहते हैं ?
उ०- जिस गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्त्वकी व्युच्छित्ति कही हो उस गुणस्थान तक ही उन प्रकृतियोंका बन्ध, उदय अथवा सत्त्व पाया जाता है । आगेके किसी भी गुणस्थान में उन प्रकृतियोंका बंध, उदय अथवा सत्व नहीं होता । इसीको व्युच्छिति ( अभाव ) कहते हैं ।
६३४. प्र० - मिथ्यात्व गुणस्थान में किन प्रकृतियोंका बन्ध होता है ? उ०- मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थङ्कर, आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता । अतः आठों कर्मोकी बन्ध योग्य एक सौ बीस प्रकृतियों में से तीन घटाने पर ११७ प्रकृतियां बन्ध योग्य हैं ।
६३५. प्र० - तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध किसके होता है ?
- चौथे असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सातवें अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त ही केवली या श्रुतकेवलीके चरणोंके निकट तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ करते हैं ।
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६३६ प्र० - मिथ्यात्वगुणस्थान में किन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है ?
उ०- मिथ्यात्व, हुण्डक संस्थान, नपुंसक वेद, असंप्राप्तास्पाटिका संहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जाति, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी और नरकायु, इन सोलह प्रकृतियों के बन्धका कारण मिथ्यात्व ही है । अतः मिथ्यात्व गुणस्थान से आगे इनका बन्ध नहीं होता ।
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