Book Title: Karnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 103
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका ५४६. प्र०-गोत्रकर्मके भेदोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कितना है ? उ०-उच्च गोत्रका दस कोड़ाकोड़ी सागर और नीच गोत्रका बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। ५४७. प्र०-यह उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किसके होता हैं ? उ०-सैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके होता है। ५४८. प्र०-कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध कितना है ? उ०-पाँचों ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, मोहनीय, आयु और पाँचों अन्तरायोंका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है । नाम और गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त प्रमाण है और वेदनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त प्रमाण है। ५४९. प्र०-यह जघन्य स्थितिबन्ध किसके होता है? उ.-मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अनिवृत्ति बादर साम्पराय नामक नौवें गुणस्थानमें, आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध कर्मभूमिया मनुष्य तियंञ्चोंमें और शेष कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थानमें होता है। ५५०. प्र०-एक समयमें बंधे हुए सभी पुद्गल परमाणुओंकी स्थिति क्या समान होती है ? उ०-एक सययमें जो स्थितिबन्ध होता है उसमें बन्ध समयसे लगाकर आबाधा कालपर्यन्त तो बन्धे हुए परमाणओंका उदय नहीं होता। आबाधा काल बीतने पर प्रथम समयसे लेकर बन्धो हुई स्थितिके अन्त समय पर्यन्त प्रत्येक समयमें एक-एक निषेकका उदय होता है। अतः प्रथम निषेककी स्थिति एक समय अधिक आबाधाकाल मात्र होती है, दूसरे निषककी स्थिति दो समय अधिक आबाधाकाल मात्र होती है, इस तरह क्रमसे एक-एक समय बढ़ते बढ़ते अन्तके निषेकसे पहले निषेकको स्थिति एक समय कम स्थितिबन्ध प्रमाण है और अन्तिम निषेककी स्थिति सम्पूर्ण स्थितिबन्ध प्रमाण है। जैसे मोहनीय कर्मको सत्तर कोडाकोड़ा सागरको स्थिति बन्धो। उसमेंसे सात हजार वर्ष तो आबाधाकाल है। अतः प्रथम निषेकको स्थिति एक समय अधिक सात हजार वर्ष है। दूसरे आदि निषेकोंकी स्थिति क्रमसे एक-एक समय बढ़तेबढ़ते अन्तिम निषेककी स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागर होती है। ५५१. प्र०-आबाधाकाल किसे कहते हैं ? उ.-कर्मका बन्ध होनेके पश्चात् जबतक वह कर्म उदय अथवा उदीरणा अवस्थाको प्राप्त नहीं होता, उतने कालको आबाधाकाल कहते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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