Book Title: Karnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका उ०-संज्ञोके प्रयमसे लेकर बारह गुणस्थान होते हैं और असंज्ञोके केवल एक पहला गुणस्थान ही होता है। ३८३.प्र.-आहारक किसको कहते हैं ? उ०-औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरोंमेंसे अपने योग्य किसी एक शरोर, भाषा तथा मनके योग्य पुद्गल वर्गणाओंको जो जीव नियमसे ग्रहण करता है उसे आहारक कहते हैं और औदारिक आदि शरीरके योग्य पुद्गल वर्गणाओंके ग्रहण न करनेवाले जीवोंको अनाहारक कहते हैं। - ३८४. प्र०-अनाहारक जीव कौन हैं ? __उ०-विग्रहगतिमें स्थित जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करनेवाले सयोगकेवली तथा अयोगकेवलो और सिद्ध जीव नियमसे अनाहारक होते हैं, शेष जीव आहारक होते हैं। ३८५. प्र०-आहारकके कितने गुणस्थान होते हैं ? उ.-आहारकके पहलेसे लेकर तेरह गुणस्थान तक होते हैं। ३८६. प्र०-अनाहारकके कितने गुणस्थान होते हैं ? उ०-अनाहारकोंके पांच गुण स्थान होते हैं-पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवाँ और चौदहवाँ । ३८७. प्र०-अनुयोगद्वार कितने हैं ? उ०-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प बहुत्व ये आठ अनुयोगद्वार हैं। ३८८.प्र०-अनुयोगद्वारोंका क्या प्रयोजन है ? - उ०-ये आठ अनुयोगद्वार अर्थात् अधिकार अवश्य हो जानने चाहिये क्योंकि इनकी जानकारोके बिना गुणस्थान और मार्गणास्थानोंका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। ३८९. प्र.-सत्प्ररूपणा किसका कथन करती है ? उ०-सत्प्ररूपणा पदार्थों के अस्तित्वका कथन करती है। उस कथनके दो प्रकार हैं-एक ओघ कथन और एक आदेश कथन । सामान्य कथनको ओघ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132