________________
२२
करणानुयोग-प्रवेशिका उ.-चारित्रमोहनीयका क्षयोपशम होनेसे सकलसंयमके होते हुए भी जिस मुनिके प्रमादका सद्भाव होता है वह प्रमत्तविरत नामक छठे गुणस्थानवर्ती होता है।
११४. प्र०-प्रमाद किसे कहते हैं ? उ०-अच्छे कार्यों में उत्साहके न होनेका नाम प्रमाद है। ११५. प्र०-प्रमादके कितने भेद हैं ?
उ०-पन्द्रह भेद हैं-चार विकथा ( स्त्रोकथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा ), चार कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ), पाँच इन्द्रियाँ, एक निद्रा और एक स्नेह ।
११६. प्र०-अप्रमत्तविरत नामक सातवें गुणस्थानका क्या स्वरूप है ?
उ०-संज्वलनकषाय और नोकषायोंका मन्द उदय होनेसे प्रमादरहित संयम भावको अप्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं।
११७ प्र०-अप्रमत्त विरतके कितने भेद हैं ? उ०-दो भेद हैं-स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। ११८. प्र०-स्वस्थान अप्रमत्स किसे कहते हैं ?
उ०-जो समस्त प्रमादोंको नष्ट करके व्रत, गुण और शोलसे भूषित है, धर्मध्यानमें लीन उस ज्ञानो मुनिको स्वस्थान अप्रमत्त कहते हैं।
११९. प्र०-सातिशय अप्रमत्त किसे कहते हैं ?
उ०-जो अप्रमत्तविरत उपशमश्रेणि अथवा क्षपकश्रेणि चढ़नेके अभिमुख होता हुआ, चारित्रमोहनीयकी इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम अथवा क्षय करने में निमित्तभूत अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन प्रकारके परिणामोंमेंसे पहले अधःकरणको करता है उसे सातिशय अप्रमत्त कहते हैं।
१२०. प्र०-श्रेणि चढ़नेसे क्या अभिप्राय है?
उ०-सातवें गुणस्थानसे आगे गुणस्थानोंको श्रेणियाँ हैं-एकका नाम उपशमणि है और दूसरोका नाम क्षपकश्रेणि है। प्रत्येक श्रेणिमें चार-चार गुणस्थान होते हैं। जिनमें यह जीव क्रमसे ऊपर जाता है। इसीको श्रेणि चढ़ना कहते हैं।
१२१. प्र०-उपशमणि किसे कहते हैं ?
उ०-जिसमें चारित्र मोहनोयकी इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम किया जाये उसे उपशमश्रेणि कहते हैं।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org