Book Title: Karnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 54
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका . बिना छै प्राण होते हैं। एकेन्द्रियके स्पर्शनइन्द्रिय, कायबल, श्वासोच्छवास और आयू ये चार प्राण होते हैं। यह पर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा जानना। अपर्याप्त दशामें सैनी और असैनी पञ्चेन्द्रियके सात प्राण हो होते हैं, क्योंकि श्वासोच्छ्वास, बचनबल और मनोबल ये तीन प्राण पर्याप्त दशामें ही होते हैं। चौइन्द्रियके श्रोत्रके बिना छ, तेइन्द्रियके चक्षुके बिना पाँच, दोइन्द्रियके घ्राणके बिना चार और एकेन्द्रिय अपर्याप्तके रसनाके बिना तीन ही प्राण होते हैं। १९३. प्र०-पर्याप्ति और प्राणमें क्या भेद है ? उ०-पर्याप्ति करण है, प्राण कार्य है। १९४. प्र०-संज्ञा किसे कहते हैं ? उ०-वांछा ( चाह ) को संज्ञा कहते हैं। १९५. प्र०-संज्ञाके कितने भेद हैं ? उ०-चार हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह । १९६.३०-उपयोग किसे कहते हैं ? उ०-जीवके लक्षणरूप परिणामको, जो चैतन्यके होनेपर ही होता है, उपयोग कहते हैं। १९७. प्र०-उपयोग कितने भेद हैं ? उ०-दो हैं-साकार उपयोग और अनाकार उपयोग । १९८. प्र०-साकार उपयोगके कितने भेद हैं ? उ०-आठ हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधि अथवा विभंगज्ञान । १९९. प्र०-अनाकार उपयोग कितने भेद हैं ? उ०-चार हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । २०० प्र०-मार्गणा किसको कहते हैं ? उ०-जिनमें अथवा जिनके द्वारा जोवोंको खोजा जाता है उनका नाम मार्गणा है। १६१. गो० जी०, गा० १३० । १६६. गो० जी०; गा० १४१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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