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करणानुयोग-प्रवेशिका एक वातवलय बोस-बीस हजार योजन मोटा है और एक राजूसे ऊपर एक साथ घटकर तीनों वातवलयोंको मोटाई क्रमसे सात, पाँच और चार पोजन है । फिर क्रमसे घटता हुआ मध्यलोकके निकट तीनोंका बाहुल्य क्रमसे पांच, चार और तीन योजन है। फिर क्रमसे बढ़ते हुए ब्रह्मलोकके निकटमें तीनोंका बाहुल्य क्रमसे सात, पाँच और चार योजन है । फिर क्रमसे घटते हुए ऊर्ध्वलोकके निकटमें तीनोंका बाहुल्य क्रमसे पाँच, तीन और चार योजन है ।
९८.प्र०-सनालोका स्वरूप क्या है?
उ०- लोकके मध्यमें बसनालो है। लोकके नीचेसे लेकर लोकके ऊपर अन्तपर्यन्त चौदह राजू ऊँची है और एक राजू लम्बी तथा एक राजू चौड़ी है। त्रस जीव इसीमें रहते हैं, इसीसे इसे त्रसनाली कहते हैं। इसके बाहर शेष लोकमें स्थावर जीव हो पाये जाते हैं।
९९. प्र०-तिर्यञ्च कहाँ रहते हैं ?
उ०-तिर्यञ्चोंमें एकेन्द्रिय जीव तो सर्वलोकमें रहते हैं, विकलत्रय (दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव ) कर्मभूमिमें और अन्तके आधे द्वीप तथा अन्तके स्वयंभूरमण समुद्रमें ही रहते हैं तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च मध्यलोकमें रहते हैं। किन्तु जलचर तिर्यञ्च लवणसमुद्र, कालोदधि समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्रके सिवाय अन्य समुद्रोंमें नहीं हैं।
१००. प्र०-मनुष्य कहाँ रहते हैं ?
उ.-मनुष्य केवल मनुष्यलोक, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि और पुष्करार्धद्वीपमें ही रहते हैं।
१०१. प्र.-प्ररूपणा किसको कहते हैं ?
उ०-कथन करनेका नाम प्ररूपणा है । जैसे-जीवका कथन करनेको जोवप्ररूपणा कहते हैं।
१०२. प्र०-जीवप्ररूपणाके कितने प्रकार हैं ?
उ०-संक्षेपसे तो दो ही प्रकार हैं—एक गुणस्थान और दूसरा मार्गणा। इन्हींके विस्तारसे जीवप्ररूपणाके बोस भेद हो जाते हैं-गुणस्थान, मार्गणास्थान, जोवसमास, पर्याप्ति, प्राण, उपयोग और १४ मार्गणाएँ।
६८. त्रि० सा०, गा० १४३ ।
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