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है और जीन की तरह प्रत्येक प्राणधारी के साथ संपृक्त है। अतः जब हम सोचते हैं कि व्यक्ति-व्यक्ति में जो भेद है, अन्तर है, उसका मूल कारण क्या है ? तो कर्म शब्द में इसका समाधान मिलता है। कर्म की विभिन्न प्रकृतियों का सूक्ष्म विवेचन समझने पर यह बात स्पष्ट होती है कि-असमानता एवं विविधता का कारण कर्म है।
गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-इन प्राणियों में परस्पर इतना विभेद क्यों है? तो भगवान महावीर ने इतना स्पष्ट और सटीक उत्तर दिया"गोयमा ! कम्मओ णं विभत्तीभावं जणयइ !''-हे गौतम ! कर्म के कारण यह भेद है ? 'कर्म' ही प्रत्येक प्राणी के व्यक्तित्त्व का घटक है। कर्म ही संसार की विचित्रता का कारण है।
बहुत-से धर्मचिन्तकों एवं दार्शनिकों ने कर्म को संस्कार के रूप में प्रतिपादित किया है। जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से कर्म एक विशेष शब्द है जिसमें क्रिया, प्रवृत्ति
और संस्कार से भी सूक्ष्म तथा विशिष्ट अर्थ छिपा है। जैनदर्शन के अनुसार क्रिया अर्थात् प्रवृत्ति के साथ जब कषाय (राग-द्वेष) का संयोग होता है, तब आत्मा (जीव) के भीतर एक कम्पन/खिंचाव (आकर्षण) पैदा होता है इस प्रदेश-स्पन्दन द्वारा आकृष्ट विशेष प्रकार के पुद्गल स्कंध आत्मा के साथ दूध में पानी की तरह संश्लिष्ट हो जाते हैं अर्थात् आत्मा द्वारा आकृष्ट उन पुद्गल स्कंधों को कर्म कहते हैं जो स्वयं तो पुद्गल/जड़ हैं किन्तु अपने स्वभाव के द्वारा आत्मा पर आवरक बनकर छा जाते हैं जैसे सूरज पर बादल, दीपक या बल्ब पर काँच आदि का आवरण। कर्म आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है, वह स्वभाव को आवृत करता है, स्वभाव में विकार, रुकावट या प्रतिरोध पैदा करता है। धर्म आत्मा का स्वभाव है। आत्मा अर्थात् परम शुद्ध चेतना। उस चेतना का स्वभाव है ज्ञानमय, सतत जागृति शक्ति-सम्पन्नता और सतत आनन्दमय। सामान्य भाषा में हम जिसे सत्-चित्-आनन्दमय स्वरूप कहते हैं वही आत्मा का स्वभाव है।
जैनदर्शन के अनुसार आत्मा के चार मुख्य गुण या स्वभाव हैं-प्रकाश अर्थात् अनन्त ज्ञानमय स्वरूप, जागृति अर्थात् अनन्त दर्शनमय स्वरूप अथवा अनन्त आनन्दमय स्वरूप, अव्याबाध सुख तथा अनन्त शक्ति-सम्पन्नता। इसे अनन्त चतुष्टय कहा जाता है। यह अनन्त चतुष्टय प्रत्येक आत्मा का स्वभाव है।
उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझें कि-यह आत्मा एक केन्द्रीय शक्ति है। इस आत्मा के परिपार्श्व में कषाय, राग-द्वेष की वृत्तियाँ चारों तरफ से घेरा डाले हुए हैं और उसके बाहर है-कर्मपुद्गल का वलय अर्थात् आठ प्रकार की कर्म संरचना। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं। मध्य में आत्मा स्थित है। उसके चारों तरफ कषाय का घेरा है, कषाय-रस (चिकनाई) आत्मा को सचिक्कण बनाये हुए है और
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