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पिन की नोंक पर टिके इतने स्थान पर लाखों लाख कोशिकाएँ हैं। कोशिकाएँ इतनी सूक्ष्म हैं। उन सूक्ष्म कोशिकाओं में जीवन-रस है। उस जीवन-रस में जीवकेन्द्रन्यूक्लीयस (Nucleus) है। जीवकेन्द्र में क्रोमोसोम (Chromosomes) गुणसूत्र विद्यमान हैं। उनमें जीन (जीन्स-Genes) हैं। जीन में संस्कारसूत्र हैं। ये जीन (Genes) ही सन्तान में माता-पिता के संस्कारों के वाहक या उत्तराधिकारी होते हैं। एक जीन जो बहुत ही सूक्ष्म होता है, उसमें छह लाख संम्कारसूत्र अंकित होते हैं। इन संस्कारसूत्रों के कारण ही मनुष्यों की आकृति, प्रकृति, भावना और व्यवहार में अन्तर आता है।
इस वंशानुक्रम विज्ञान (जीन सिस्टमोलोजी) का आज वहुत विकास हो चुका है। यद्यपि वंशानुक्रम के कारण अन्तर की वात प्राचीन आयुर्वेद एवं जैन आगमों में भी उपलब्ध है। आयुर्वेद के अनुसार पैतृक गुण अर्थात् माता-पिता के संम्कारगत गुण सन्तान में संक्रमित होते हैं। भगवान महावीर ने भी भगवती तथा स्थानांगसूत्र में जीन को मातृअंग पितृअंग के रूप में निरूपित किया है। इसलिए आधुनिक विज्ञान में वंशानुक्रम विज्ञान की खोज कोई नई बात नहीं है। मारवाड़ी भाषा का एक दोहा प्रसिद्ध है :
“बाप जिसो बेटो. छाली जिसो टेटो.
घड़े जिसी टिकरी, माँ जिसी दीकरी।" यह निश्चित है कि माता-पिता के संम्कार सन्तान में संक्रमित होते हैं और वे मानव व्यक्तित्त्व के मूल घटक होते हैं। परन्तु देखा जाता है, एक ही माता-पिता की दो सन्तान-एक समान वातावरण में, एक समान पर्यावरण में पलने पर, एक समान संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था होने पर भी दोनों में बहुत-सी असमानताएँ रहती हैं। एक समान जीन्स होने पर भी दोनों के विकास में, व्यवहार में, बुद्धि और आचरण में भेद मिलता है। एक अनपढ़ माता-पिता का वेटा प्रखर बुद्धिमान् और एक डरपोक कायर माता-पिता की मन्तान अत्यन्त साहसी, वीर, शक्तिशाली निकल जाती है। बुद्धिमान माता-पिता की सन्तान मूर्ख तथा वीर कुल की सन्तान काया निकल जाती है। सगे दो भाइयों में से एक का म्वर मधुर है, कर्णप्रिय है, तो दूसरे का कर्कश है। एक चतुर चालाक वकील है, तो दूसग अत्यन्त शान्तिप्रिय, सत्यवादी हरिश्चन्द्र है। एमा क्यों है ?
वंशानुक्रम विज्ञान के पास इन प्रश्नों का आज भी कोई उत्तर नहीं हैं। मनोविज्ञान भी यहाँ मौन है। एक सीमा तक जीन्म का अन्तर समझ में आ सकता है। परन्तु जीन्स में यह अन्ना पैदा करने वाला कौन है ? विज्ञान वहाँ पर मौन रहता है, तब हम कर्म-सिद्धान्त की ओर बढ़ते हैं। कर्म जीन से भी अत्यन्त सूक्ष्म सूक्ष्मतर .
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