Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 10
________________ समस्या अनेक : समाधान एक जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है । सापेक्षवाद की पृष्ठभूमि पर इसका विकास हुआ है। प्रत्येक प्रश्न पर वह सापेक्षदृष्टि से विचार करता है। आत्मा के सम्बन्ध में भगवान महावीर ने कहा है- एगे आया - आत्मा एक है। यह कथन स्वभाव की दृष्टि से है। आत्मा का स्वभाव है चेतना । उपयोग । चेतना की दृष्टि से संसार की सभी आत्माएँ समान हैं। सबमें सुख-दुःख की संवेदना है। सबको सुख प्रिय है । दुःख अप्रिय है । इस दृष्टि से सब आत्माएँ समान हैं । स्वभाव, स्वरूप एवं अस्तित्व की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा समान है। दूसरी दृष्टि से चिन्तन करने पर हम यह देखकर विस्मय में पड़ जाते हैं कि संसार में कोई भी आत्मा समान नहीं है। कोई जीव एकेन्द्रिय वाला है, कोई दो इन्द्रिय वाला, कोई तीन तो कोई चार व पाँच इन्द्रिय वाला। किसी प्राणी की चेतना बहुत विकसित है, बुद्धि प्रखर है, शरीर व इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं तो किसी प्राणी की आत्म-चेतना बहुत अल्पविकसित है, मंद-बुद्धि है, शरीर से रोगी है, इन्द्रियाँ भी ही हैं। इस प्रकार संसार में कोई भी आत्मा या जीव समान नहीं दीखता । प्रत्येक जीव के बीच इतनी असमानता व भिन्नता है कि देखकर विस्मय एवं कुतूहल होता है कि यह कौन कलाकार है जिसने इतनी कुशलता व चतुरता के साथ प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ का निर्माण किया है कि सभी परस्पर एक-दूसरे से भिन्न और असमान दिखाई देते हैं। संसार की विचित्र स्थितियों को देखकर मन में एक कुतूहल जगता है । संसार में इतनी विभिन्नता/इतनी विचित्रता क्यों है ? प्रकृति के अन्य अंगों को छोड़ देवें, सिर्फ मनुष्य जाति पर ही विचार करें तो हम देखेंगे, भारत के ८० करोड़ मनुष्यों में कोई भी दो मनुष्य एक समान नहीं मिलते। उनकी आकृति में भेद है, प्रकृति में भेद है । कृति, मति, गति और संस्कृति में भी भेद है। विचार और भावना में भेद है। तब प्रश्न उठता है, आखिर यह भेद या अन्तर क्यों है ? किसने किया है ? इसका कारण क्या है ? प्रकृतिजन्य अन्तर या भेद के कारणों पर तो वैज्ञानिकों ने बड़ी सूक्ष्मता और व्यापकता से विचार किया है और उन्होंने एक कारण खोज निकाला - हेरिडिटी(Heredity) वंशानुक्रम। वैज्ञानिकों का कहना है - हमारा शरीर कोशिकाओं द्वारा निर्मित है। एक कोशिका (एक सेल) कितना छोटा ही है, इस विषय में विज्ञान की खोज है- एक Jain Education International દ ६ ४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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