Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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थे उनकी स्तुति करते हैं। तदनन्तर भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी को प्रणाम करते हैं। फिर गुरुचरण का स्मरण कर समस्त महाकवि मुनिवरों को वन्दना करते हैं। वामहस्त में पुस्तक दक्षिण हस्त में माला धारण की हुई तथा तृतीय हाथ में कमल को धारण की हुई तथा चतुर्थ हस्त से वर प्रदान करती हुई सरस्वती का स्मरण करते हैं। इसके बाद सज्जन की प्रशंसा कर दुर्जनों की निन्दा करते हुए कहते हैं कि दुर्जन को कितना भी समझाया जाय किन्तु वह अपना दुष्ट स्वभाव को नहीं छोड़ता । जैसे नीम को अमृत से सिंचित किया जाय तो भी नीम अपने कटु स्वभाव को नहीं छोड़ता उसी प्रकार दुर्जन भी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करता । अतः उनकी उपेक्षा ही योग्य है। अथवा दुर्जनों की निन्दा करने से भी क्या लाभ ? और खास कर जब धार्मिक कार्य का प्रारंभ करते हैं तो वहाँ किसी की भी निन्दा करना उचित नहीं है। इसके बाद चरित्रकथा का आरम्भ करते हुए ग्रन्थकार कथावस्तु का विवेचन करते हैं।
कथा दो प्रकार की है। एक पुरुष प्रधान और दूसरी स्त्री प्रधान । पुरुष प्रधान कथाओं में हरिवंशादि मुख्य है। और स्त्री प्रधान कथाओं में तरंगवती आदि ।
स्त्री और पुरुष प्रधान कथाओं के तीन तीन प्रकार है-~~-एक अर्थ प्रतिबद्ध, दूसरी काम प्रतिबद्ध और तीसरी धर्मप्रतिबद्ध । जिन कथाओं में अर्थ-धन को ही प्रधानता दी जाती है, अर्थ और अर्थी की प्रशंसा की जाती है वह कथा अर्थप्रतिबद्ध होती है। जिसमें स्त्री पुरुषों के शृंगार, कामोत्पादक हाव-भावों का वर्णन किया जाता है वह कथा कामप्रतिबद्ध कथा है। जिसमें हिंसा, झूठ, चोरी, परदार सेवन तथा परिग्रह के सेवन से होने वाले दुष्परिणाम तथा धर्म करने के सुपरिणाम वर्णित हैं वह कथा धर्मकथा है।
ऐसी धर्म कथा को श्रवण करने वाले श्रोतागण भी तीन प्रकार के हैं-अर्थाथिक, दूसरा कामाथिक और तीसरा धर्मार्थिक । जिनमें धर्मार्थिक श्रोता विरल ही होते हैं। कामकथा कहने से, सुनने से चर्तुगति का भ्रमण होता है। अत: उसका परित्याग करना चाहिए। स्वपर का उपकार करने वाली धर्मकथा कहनी चाहिए वह भी परिषद् में । यह परिषद भी दो प्रकार की है--एक उपस्थित दूसरी अनुपस्थित । अनुपस्थितों को धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए । उपस्थित परिषद् के श्रोता भी तीन प्रकार के हैं एक ज्ञाता विदित और दूसरा अज्ञाता-अविदित और तीसरा दुर्विदग्ध । जिसमें प्रारंभ के दो प्रकार के श्रोताओं में कथा कहनी चाहिए। दुर्विदग्धों को कभी कथा नहीं कहनी चाहिए।
अस्तु, इनका विस्तार निरर्थक है। अब मैं पाँच अधिकार वाली कल्याणप्रद शिव और मंगलकारी धन्य ऐसे ऋषभनाथ का चरित्र आपको सुना रहा हूँ आप ध्यान से सुने--
इस प्रकार ग्रन्थकार प्रारंभिक कथन कर के ऋषभ देव के तेरह भवों का वर्णन करते हैं।
भगवान ऋषभदेव के तेरह भव-- धन्नासार्थवाह--(पृ०३)
जम्बूद्वीप के अपरविदेह में क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था। उस नगर में अमरसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसके राज्य में प्रजा सुखी थी।
इसी नगर में धन्नासार्थवाह नाम का धनाढ्य सेठ रहता था। एक समय व्यापार के लिए सेठ ने वसन्तपूर जाने का निश्चय किया। उसने नगर में यह घोषणा करवाई कि “मैं व्यापारार्थ बसन्तपुर जा रहा हूँ । जो मेरे साथ चलना चाहे उसे मैं हर तरह की सहायता दूंगा।" अनेक व्यक्ति सेठ के साथ जाने को तैयार हुए। धर्मघोष नाम के आचार्य भी अपनी शिष्य मण्डली के साथ सेठ की आज्ञा प्राप्त कर उनके साथ बसन्तपुर के लिए चले। मार्ग में वर्षाऋतु आई। वर्षा के कारण मार्ग अत्यन्त दुर्गम बन गया था। अत: सेठ ने एक स्थान पर
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