Book Title: Jine ki Kala
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 26
________________ शांति को । सुख-सुविधा की चकाचौंध में शांति के मार्ग, मौन के मार्ग, साधना के मार्ग और जीवन की सहजता के मार्ग हमारे हाथ से फिसल गए हैं। चारों ओर अशांति का साम्राज्य है। आशंका, आवेश, आग्रह ये सब उत्तेजना के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं । जो व्यक्ति किसी के दो कड़वे शब्दों को शांति से सहन नहीं कर सकता वह जीवन में कभी भी मन की शांति का मालिक नहीं बन सकता। दूसरों की बातों पर गौर न करते हुए अपनी ही बात का आग्रह करते रहना और छोटी-मोटी बातों में क्रोधित और उत्तेजित हो जाना तनाव के प्रारम्भिक लक्षण हैं । भगवान महावीर अगर अपने कानों में कीलें ठुकवा सकते हैं और श्रीकृष्ण शिशुपाल की निन्यानवें गलतियों को माफ कर सकते हैं तो क्या हम किसी के दो कड़वे शब्द सुनने और किसी की नौ गलतियों को माफ करने का बड़प्पन नहीं दिखा सकते ? परिवार में रखिए वैचारिक संतुलन तनाव का एक और कारण होता है जो केवल व्यक्ति को ही नहीं पूरे परिवार और समाज को तनावग्रस्त कर देता है और वह है ‘हमारा वैचारिक असामंजस्य' । हम एक दूसरे के विचारों का न तो सम्मान कर पाते हैं और न ही उन्हें सही अर्थ में समझ पाते हैं। ऐसी स्थिति में पिता-पुत्र, भाई-भाई, सास-बहू, पति-पत्नी इन सब में मानसिक दूरियाँ बढ़ती हैं और इनके पारस्परिक सम्बन्ध वैसे ही हो जाते हैं जैसे सूखे तालाब की मिट्टी में पड़ी दरारें । परिवार का हर व्यक्ति अगर अपने आपको ज्यादा बुद्धिमान मानेगा और स्वयं को बड़ा समझकर अपने अहंकार की पुष्टि करने का प्रयास करेगा तो आप यह मानकर चलें कि वह घर, घर नहीं अपितु सूखा मरुस्थल होगा जिसमें हर सदस्य एक-दूजे के प्रति शक, आक्रोश और विपरीत भावना से भरा होगा। वे साथ रहेंगे पर दूरदूर। एक घर में रहेंगे पर एक दूजे से कटकर तनावग्रस्त होंगे। किसी को पति के कारण तनाव, किसी को सास के कारण, किसी को बहू के कारण तनाव होगा तो कहीं देवराणी-जेठाणी में अनबन के कारण तनाव होगा। आप अपने द्वारा परिवार को तनाव दे रहे हैं या परिवार के द्वारा आप तनाव में हैं, दोनों ही स्थितियों में हमारा घर नरक बन सकता है । अगर हम वैचारिक संतुलन बनाने में सफल हो जाते हैं तो हमारा घर अपने-आप ही स्वर्ग बन जाएगा । न अतीत, न भविष्य; केवल वर्तमान तनाव का एक और कारण है, 'अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना ।' उसने मेरे साथ ऐसा किया, अब मैं उसके साथ वैसा करूँगा। अगर उस समय मैंने वैसा नहीं किया होता तो अभी ऐसा नहीं होता । यदि उस समय ऐसा कर देता तो ठीक रहता। पता नहीं, इस तरह की कितनी यादें व्यक्ति अपने मन में संजोए रखता है । जो बीत गया उसे वापस लौटाया नहीं जा सकता तो उसे याद करने का क्या औचित्य है ? और जो होने वाला है, वह होकर ही रहेगा तो उसके बारे में व्यर्थ का तनाव या चिंता पालने का क्या औचित्य ? जो बीत चुका है उस पर विलाप करने से क्या लाभ और जो अभी उपस्थित नहीं है उसकी कल्पना के जाल क्यों बुनना ? माह बीत जाता है कलेन्डर से पन्ना फाड़ देते हैं, वर्ष बीत जाता है तो कलेन्डर को ही हटा देते हैं लेकिन व्यक्ति अपने भीतर पलने वाली उत्तेजना को, अनर्गल विचारों को, दूसरों के प्रति होने वाले वैमनस्य को Jain Education International 25 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.

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