Book Title: Jine ki Kala
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 95
________________ चले जाते कि अमुक शास्त्र में यह कहा है, फलां पुस्तक में यह लिखा है। लेकिन किसी की बात से भी सम्राट् संतुष्ट हुआ वे ज्ञानीजन जीवन के सत्य का प्रतिबोध राजा को न दे पाए। इस तरह वर्षों बीत गए । एक दिन एक अस्सी वर्षीय वृद्ध संत आया और बोला- 'सम्राट्, मैं तुम्हें जीवन का परम सत्य देने आया हूँ, वही सत्य जो मेरे गुरु ने मुझे दिया था । ' - यह कहते हुए उसने अपनी भुजा पर बँधा हुआ ताबीज खोला और राजा को दे दिया। राजा संत को देखने लगा। संत बोला- 'राजन्, जब मेरे गुरु का देह-विलय हुआ था तब उन्होंने मुझे यह ताबीज यह कहकर दिया कि इस ताबीज को तुम कभी मत खोलना, पर जिस दिन तुम्हें यह लगे कि जीवन में संकट का अंतिम दिन आ गया है और तुम इसका सामना करने में विफल हो गए हो तो उस दिन इस ताबीज को खोल लेना और यही तुम्हारे जीवन का परम सत्य होगा। सम्राट्, आज तक मेरे जीवन में ऐसा मौका नहीं आया कि मैं इसे खोलूँ । अब मैं बूढ़ा हो चुका हूँ। पता नहीं कब चला जाऊँ इसलिये यह ताबीज मैं तुम्हें दे रहा हूँ। पर तुम भी याद रखना कि इस ताबीज को तुम भी तब ही खोलना जब तुम्हें लगे कि तुम्हारे जीवन में संकट का अंतिम पल आ गया है।' यह कहकर वह संत चला गया । - इधर सम्राट् की रोज इच्छा होती थी कि ताबीज खोलकर देख ले लेकिन संत के वचन उसे ऐसा करने से रोक रहे थे। चार-पांच वर्ष बीत गए। वह ताबीज सम्राट् की भुजा पर बँधा रहा। एक बार पड़ोसी राजा ने सम्राट् के राज्य पर हमला कर दिया। युद्ध हुआ और सम्राट् हार गया। वह घोड़े पर बैठा और महल के पिछले दरवाजे से भाग छूटा। जब शत्रुसेना को पता चला कि सम्राट् भाग गया है तो वे लोग भी जंगलों में उसे पकड़ने के लिये पीछे दौड़ पड़े। आगे सम्राट् का घोड़ा और पीछे शत्रुसैनिकों के घोड़े । सम्राट् को लगा कि अब शत्रु के सैनिक उसे पकड़ ही लेंगे। उसने और अधिक तेजी से घोड़ा दौड़ा दिया। सामने नदी आ गई। सम्राट् को तैरना नहीं आता था । वह घोड़े से उतरा और छुपने की जगह खोजने लगा लेकिन आसपास ऐसा कुछ नहीं था जहाँ सम्राट् छिप सके । पीछे से घोड़ों के टापों की आवाज आ रही थी । सम्राट् ने सोचा, 'यह मेरे जीवन के संकट का आखिरी पल है । फकीर ने कहा था - ऐसे पल में ताबीज को खोल लेना। उसने ताबीज तोड़ा, ढक्कन खोला तो देखा कि उसमें एक कागज था। सम्राट् ने कागज खोला तो देखा उस पर लिखा था - 'यह भी बीत जाएगा। यही जीवन का सत्य है । ' तभी उसने देखा कि घोड़ों के टापों की आवाज बन्द हो चुकी है। सैनिक मार्ग भटककर दूसरी दिशा में चले गए। राजा बार-बार उस कागज को पढ़ने लगा, यह भी बीत जाएगा। हाँ, यही जीवन का सच है - राजा सोचने लगा। कुछ घंटे पहले मैं नगर का सम्राट् था, लेकिन वह बीत गया। कुछ देर पहले मैं शत्रुसैनिकों द्वारा पकड़ा जा सकता था लेकिन वे मार्ग भटक गए - यह भी बीत गया। आज मैं जंगल में अकेला पड़ा हूँ। मेरे पास शक्ति और सम्पत्ति नहीं है। अरे, जब वे दिन भी बीत गए तो ये दिन भी बीत जाएंगे। सम्राट् ने बार-बार उस मंत्र को पढ़ा और अपने मनोबल को मजबूत करते हुए आसपास के गाँवो में जाकर अपने सैन्यबल को इकट्ठा करने की कोशिश की और धीरे-धीरे विशाल सैन्यबल का निर्माण कर अपने ही नगर पर हमला कर दिया। भयंकर युद्ध लड़ा गया। शत्रु के सैनिक और राजा मारे गए। सम्राट् ने अपने ही नगर, राजमहल और राजगद्दी पर फिर कब्जा किया। सम्राट् का पुनः राज्याभिषेक होने वाला था। नगर के श्रेष्ठि, मंत्री, सेनापति, राज पुरोहित सभी Jain Education International 94 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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