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जब-जब हम अपनी मर्यादाओं से बाहर गए हैं, जो अकरणीय था वह किया। जीवन का जो संयम था उसका अतिक्रमण किया तो संध्याकाल में इस अतिक्रमण की आलोचना लेते हैं - प्रतिक्रमण करते हैं।
का अर्थ है वापस लौटना और अतिक्रमण है सीमा से बाहर चले जाना। जीवन जीने के लिए हमारी सामाजिक, धार्मिक व्यवस्थाएँ और मर्यादाएँ थीं लेकिन हमने उनका उल्लंघन किया और उल्लंघन से जब हम वापस लौटते हैं तो इस वापसी का नाम प्रतिक्रमण है।
__ हमारा जीवन अगर निरंकुश, अमर्यादित, असंयमी और अविवेक से परिपूर्ण है तो हम दूसरे को कैसे जीत सकते हैं ? जो स्वयं को ही न जीत सका वह दूसरे को क्या जीतेगा? जिसने अपनी इन्द्रियों को, तृष्णाओं को, लालसाओं को नहीं जीता वह भला दूसरों को क्या जीतेगा? आप चुनाव में बेशक जीत जाएँ, युद्ध में भी भले ही विजय प्राप्त कर लें लेकिन स्वयं पर विजय पाना बेहद मुश्किल है। विजेता वह नहीं जिसने चुनाव जीत लिया, विजेता वह है जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया। हजारों योद्धाओं को परास्त कर जीतना भी कोई जीतना है अगर आप अपनी तृष्णाओं, वासनाओं, कामनाओं पर अंकुश लगाकर आत्म-विजेता न बन सकें । आत्मविजय ही सर्वोपरि विजय है। सीमाएँ सभी की
मर्यादाएँ सन्त और गृहस्थ दोनों के लिए हैं। आप लोगों से क्षमा माँगते हुए मैं कहना चाहूँगा कि संत तो थोड़ी-बहुत मर्यादा पालन भी करते हैं लेकिन गृहस्थ जिस तरह से मर्यादाओं को यह कहकर तिलांजलि देता जा रहा है कि हम तो गृहस्थ हैं, हमारी कैसी सीमा, हम कुछ भी कर सकते हैं, सबको शर्मसार कर देता है। जितनी मर्यादाएँ साधु की हैं उतनी ही मर्यादाएँ श्रावक और गृहस्थी की भी हैं । जो साधु मर्यादित जीवन नहीं जीता, क्या आप उसे साधु कहेंगे? मैं पूछना चाहूँगा कि जो गृहस्थ मर्यादा में नहीं जीता, क्या उसे गृहस्थ या सुश्रावक कहा जाए? पर मैं देखा करता हूँ कि व्यक्ति की बुरी आदत है औरों पर अंगुली उठाना, दूसरों पर तोहमत लगाना। दूसरा अगर जरा-सी भी मर्यादा भंग करता है तो व्यक्ति उस पर टिप्पणी करता है लेकिन स्वयं के अमर्यादित आचरण को नजरअंदाज कर देता है। पड़ौसी की बेटी जरा भी मर्यादा का उल्लंघन करे तो हम उसे चर्चा में ले आते हैं और हमारी बेटी कहाँ आ-जा रही है इसकी खबर ही नहीं रख पाते।
औरों के ऊपर टिप्पणी करने की आदत, दूसरों की नुक्ताचीनी करने की आदत, औरों की ग़लतियाँ निकालने की आदत में हमें पता नहीं चलता कि हम अपनी ही कमियों पर टिप्पणी कर रहे हैं। जब हम दूसरों पर एक अंगुली उठाते हैं तो तीन अंगुलियाँ हमारी ओर ही मुड़ी होती हैं। हाँ, अगर हम उसकी अच्छाइयों की ओर अंगुली उठाते हैं तब यही प्रकट होता है कि जितना वह अच्छा है उससे 75 प्रतिशत हम भी अच्छे हैं क्योंकि तब भी तीन अंगुलियाँ हमारी ओर रहती हैं।
दूसरों पर टिप्पणी करना, अंगुली उठाना और उनकी ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगाना बहुत सरल होता है लेकिन स्वयं ईमानदारी से जीना बहुत मुश्किल होता है । तुम एक अधिकारी हो और कोई तुम्हें रिश्वत में मोटी रकम देना चाहता है, उस समय अगर तुम अपने मन पर संयम रखने में समर्थ हो सके तो तुम्हारे जीवन में साधुता
है।
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